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[मोक्षमार्गप्रकाशक
करता ही नहीं है, किसलिये इस मार्ग में प्रवर्तता है ? तथा तेरे मतमें निरर्थक शास्त्र किसलिये बनाये ? उपदेश तो कुछ कर्त्तव्य द्वारा फल प्राप्त करनेके अर्थ दिया जाता है। इस प्रकार यह मार्ग मिथ्या है।
तथा रागादिक ज्ञान संतान वासनाका उच्छेद अर्थात निरोध उसे मोक्ष कहते हैं। परन्तु क्षणिक हुआ तब मोक्ष किसको कहता है ? और रागादिकका अभाव होना तो हम भी मानते हैं; परन्तु ज्ञानादिक अपने स्वरूपका अभाव होनेपर तो अपना अभाव होगा, उसका उपाय करना कैसे हितकारी होगा? हिताहितका विचार करनेवाला तो ज्ञानही है; सो अपने अभावको ज्ञानी हित कैसे मानेगा ?
तथा बौद्धमतमें दो प्रमाण मानते हैं- प्रत्यक्ष और अनुमान। इसके सत्यासत्यका निरूपण जैन शास्त्रोंसे जानना। तथा यदि ये दो ही प्रमाण हैं तो इनके शास्त्र अप्रमाण हुए, उनका निरूपण किस अर्थ किया ? प्रत्यक्ष-अनुमान तो जीव आप ही कर लेंगे, तुमने शास्त्र किसलिये बनाये ?
तथा वहाँ सुगतको देव मानते हैं और उसका स्वरूप नग्न व विक्रियारूप स्थापित करते हैं सो विडम्बना रूप है। तथा कमण्डल और रक्ताम्बरके धारी, पूर्वाहमें भोजन करनेवाले इत्यादि लिंगरूप बौद्धमतके भिक्षुक हैं; सो क्षणिकको भेष धारण करनेका क्या प्रयोजन? परन्तु महंतता के अर्थ कल्पित निरूपण करना और भेष धारण करना होता है।
इस प्रकार बौद्धों के चार प्रकार हैं - वैभाषिक, सौत्रांतिक, योगाचार, माध्यमिक। वहाँ वैभाषिक तो ज्ञान सहित पदार्थको मानते हैं; सौत्रांतिक प्रत्यक्ष यह दिखाई देता है, यही है इससे परे कुछ नहीं है ऐसा मानते हैं। योगाचारों के आचार सहित बुद्धि पायी जाती है; तथा माध्यमिक हैं वे पदार्थके आश्रय बिना ज्ञानहीको मानते हैं। वे अपनी-अपनी कल्पना करते हैं; परन्तु विचार करनेपर कुछ ठिकानेकी बात नहीं है।
इस प्रकार बौद्धमतका निरूपण किया।
चार्वाकमत
अब चार्वाकमत का स्वरूप कहते हैं:
कोई सर्वज्ञदेव, धर्म, अधर्म, मोक्ष है नहीं, पुण्य-पापका फल है नहीं, परलोक है नहीं; यह इन्द्रियगोचर जितना है वह लोक है - ऐसा चार्वाक कहता है।
सो वहाँ उससे पूछते हैं- सर्वज्ञदेव इस काल-क्षेत्र में नहीं हैं या सर्वदा सर्वत्र नहीं हैं ? इस काल-क्षेत्र में तो हम भी नहीं मानते हैं, परन्तु सर्व काल-क्षेत्र में नहीं हैं ऐसा
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