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पाँचवा अधिकार]
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गुणोंका अभाव सो मुक्ति है। यहाँ बुद्धिका अभाव कहा, सो बुद्धि नाम ज्ञानका है और ज्ञानका अधिकरणपना आत्माका लक्षण कहा था; अब ज्ञानका अभाव होनेपर लक्षणका अभाव होनेसे लक्ष्यका भी अभाव होगा, तब आत्माकी स्थिति किस प्रकार रही ? और यदि बुद्धि नाम मनका है तो भावमन तो ज्ञानरूप है ही और द्रव्यमन शरीररूप है सो मुक्त होनेपर द्रव्यमनका सम्बन्ध छूटता ही है, तो जड़ द्रव्य मन का नाम बुद्धि कैसे होगा? तथा मनवत् ही इन्द्रियाँ जानना। तथा विषयका अभाव हो, तो स्पर्शादि विषयोंका जानना मिटता है, तब ज्ञान किसका नाम ठहरेगा? और उन विषयोंका अभाव होगा तो लोकका अभाव होगा। तथा सुखका अभाव कहा, सो सुखहीके अर्थ उपाय करते हैं; उसका जब अभाव होगा, तब उपादेय कैसे होगा ? तथा यदि वहाँ आकुलतामय इन्द्रियजनित सुखका अभाव हुआ कहें तो यह सत्य है; क्योंकि निराकुलता लक्षण अतीन्द्रिय सुख तो वहाँ सम्पूर्ण सम्भव है, इसलिये सुखका अभाव नहीं है। तथा शरीर दुःख, द्वेषादिकका वहाँ अभाव कहते हैं सो सत्य है।
तथा शिवमतमें कर्त्ता निर्गणईश्वर शिव है, उसे देव मानते हैं; सो उसके स्वरूपका अन्यथापना पूर्वोक्त प्रकारसे जानना। तथा यहाँ भस्म, कोपीन, जटा, जनेऊ इत्यादि चिह्नों सहित भेष होते हैं सो आचारादि भेदसे चार प्रकार हैं:- शैव, पाशुपत, महाव्रती, कालमुख। सो यह रागादि सहित हैं इसलिये सुलिंग नहीं हैं।
इसप्रकार शिवमतका निरूपण किया।
मिमांसकमत
अब मीमांसकमतका स्वरूप कहते हैं। मीमांसक दो प्रकारके हैं:- ब्रह्मवादी और कर्मवादी।
वहाँ ब्रह्मवादी तो ‘यह सर्व ब्रह्म है, दूसरा कोई नहीं है' ऐसा वेदान्त में अद्वैत ब्रह्मको निरूपित करते हैं; तथा 'आत्मामें लय होना सो मुक्ति' कहते हैं। इनका मिथ्यापना पहले दिखाया है सो विचारना।
तथा कर्मवादी क्रिया, आचार, यज्ञादिक कार्योंका कर्त्तव्यपना प्ररूपित करते हैं सो इन क्रियाओं में रागादिकका सद्भाव पाया जाता है, इसलिये यह कार्य कुछभी कार्यकारी नहीं हैं।
तथा वहाँ 'भट्ट' और 'प्रभाकर' द्वारा की हुई दो पद्धतियाँ हैं। वहाँ भट्ट तो छह प्रमाण मानते हैं - प्रत्यक्ष , अनुमान, वेद, उपमा, अर्थापत्ति, अभाव। तथा प्रभाकर अभाव बिना पाँच ही प्रमाण मानते हैं, सो इनका सत्यासत्यपना जैन शास्त्रोंसे जानना।
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