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[मोक्षमार्गप्रकाशक
कहा ही था, यहाँ गुण किसलिये कहा ? तथा सुखादिक है सो आत्मामें कदाचित् पाये जाते हैं, आत्माके लक्षणभूत तो यह गुण हैं नहीं, अव्याप्तपनेसे लक्षणाभास है। तथा स्निग्धादि पुद्गलपरमाणुमें पाये जाते हैं, सो स्निग्ध गुरुत्व इत्यादि तो स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा जाने जाते हैं, इसलिये स्पर्शगुणमें गर्भित हुए, अलग किसलिये कहे ? तथा द्रव्यत्व गुण जलमें कहा, सो ऐसे तो अग्नि आदिमें ऊर्ध्वगमनत्वादि पाये जाते हैं। या तो सर्व कहना थे या सामान्यमें गर्भित करना थे। इस प्रकार यह गुण कहे वे भी कल्पित हैं।
तथा कर्म पाँच प्रकारके कहते हैं - उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण, यमन; सो यह तो शरीर की चेष्टाएँ हैं; इनको अलग कहनेका अर्थ क्या ? तथा इतनी ही चेष्टाएँ तो होती नहीं हैं, चेष्टाएँ तो बहुत ही प्रकारकी होती हैं। तथा इनको अलग ही तत्त्व संज्ञा कही; सो या तो अलग पदार्थ हों तो उन्हें अलग तत्त्व कहना था, या काम-क्रोधादि मिटानेमें विशेष प्रयोजनभूत हों तो तत्त्व कहना था; सो दोनो ही नहीं है। और ऐसे ही कह देना हो तो पाषाणादिककी अनेक अवस्थाएँ होती हैं सो कहा करो, कुछ साध्य नहीं हैं।
तथा सामान्य दो प्रकारसे है - पर और अपर। वहाँ पर तो सत्तारूप है, अपर द्रव्यत्वादिरूप है। तथा जिनकी नित्य द्रव्यमें प्रवृत्ति हो वे विशेष हैं; अयुतसिद्ध सम्बन्धका नाम समवाय है। यह सामान्यादिक तो बहुतोंको एक प्रकार द्वारा व एक वस्तुमें भेदकल्पना द्वारा व भेदकल्पना अपेक्षा सम्बन्ध माननेसे अपने विचारहीमें होते हैं, कोई अलग पदार्थ तो हैं नहीं। तथा इनके जाननेसे काम-क्रोधादि मिटानेरूप विशेष प्रयोजनकी भी सिद्धि नहीं है, इसलिये इनको तत्त्व किसलिये कहा ? और ऐसे ही तत्त्व कहना थे तो प्रमेयत्वादि वस्तुके अनन्त धर्म हैं व संम्बन्ध, आधारादिक कारकों के अनेक प्रकार वस्तुमें सम्भवित हैं, इसलिये या तो सर्व कहना थे या प्रयोजन जानकर कहना थे। इसलिये यह सामान्यादि तत्त्व भी वृथा ही कहे हैं।
इस प्रकार वैशेषिकों द्वारा कहे तत्त्व कल्पित जानना।
तथा वैशेषिक दो ही प्रमाण मानते हैं - प्रत्यक्ष और अनुमान। सो इनके सत्यअसत्यका निर्णय जैन न्याय ग्रन्थोंसे जानना।
तथा नैयायिक तो कहते हैं – विषय, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर, सुख, दुःखोंके अभावसे आत्माकी स्थिति सो मुक्ति है। और वैशेषिक कहते हैं – चौबीस गुणोंमें बुद्धि आदि नौ
१ देवागम, युक्त्यानुशासन, अष्टसहस्त्री, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रादि दार्शनिक ग्रन्थोंसे जानना चहिये।
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