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[मोक्षमार्गप्रकाशक
तथा वहाँ षट्कर्म सहित ब्रह्मसुत्रके धारक, शूद्रके अन्नादिकके त्यागी, गृहस्थाश्रम है नाम जिनका ऐसे भट्ट हैं। तथा वेदान्तमें यज्ञोपवीत रहित, विप्रअन्नादिकके ग्राही, भगवत् है नाम जिनका वे चार प्रकारके हैं – कुटीचर, बहूदक , हंस, परमहंस। सो यह कुछ त्यागसे सन्तुष्ट हुए हैं, परन्तु ज्ञान-श्रद्धानका मिथ्यापना और रागादिकका सद्भाव इनके पाया जाता है; इसलिये यह भेष कार्यकारी नहीं हैं।
जैमिनीयमत
तथा यही जैमिनीयमत है; सो इस प्रकार कहते हैं:
सर्वज्ञदेव कोई है नहीं; नित्य वेदवचन हैं उनसे यथार्थ निर्णय होता है। इसलिये पहले वेदपाठ द्वारा क्रिया में प्रवर्तना वह तो नोदना (प्रेरणा); वही है लक्षण जिसका ऐसे धर्मका साधन करना। जैसे कहते हैं कि – ‘स्वः कामोऽग्निं यजेत् ' स्वर्गाभिलाषी अग्निको पूजे; इत्यादि निरूपण करते हैं।
यहाँ पूछते हैं - शैव, सांख्य, नैयायिकादि सभी वेदको मानते हैं, तुम भी मानते हो; तुम्हारे व उन सबके तत्त्वादि निरूपणमें परस्पर विरुद्धता पायी जाती है सो क्या कारण है ? यदि वेदहीमें कहीं कुछ, कहीं कुछ निरूपण किया है, तो उसकी प्रमाणता कैसे रही ? और यदि मतवाले ही कहीं कुछ, कहीं कुछ निरूपण करते हैं तो तुम परस्पर झगड़-निर्णय करके एकको वेदका अनुसारी अन्यको वेदसे पराङ्मुख ठहरओ। सो हमें तो यह भासित होता है -वेदहीमें पूर्वापर विरुद्धतासहित निरूपण है। इसलिये उसका अपनी-अपनी इच्छानुसार अर्थ ग्रहण करके अलग-अलग मतोंके अधिकारी हुए हैं। परन्तु ऐसे वेदको प्रमाण कैसे करें ? तथा अग्नि पूजनेसे स्वर्ग होता है, सो अग्निको मनुष्यसे उत्तम कैसे मानें ? प्रत्यक्ष विरुद्ध है। तथा वह स्वर्गदाता कैसे होगी? इसी प्रकार अन्य वेदवचन प्रमाणविरुद्ध हैं। तथा वेदमें ब्रह्मा कहा है, तो सर्वज्ञ क्यों नहीं मानते ? इत्यादि प्रकारसे जैमिनीयमत कल्पित जानना।
बौद्धमत
अब बौद्धमत का स्वरूप कहते हैं:
बौद्धमतमें चार आर्यसत्य' प्ररूपित करते हैं-दुःख, आयतन, समुदाय, मार्ग।
दुःखमायतनं चैव ततः समुदायो मतः । मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रयतामतः ।। ३६ ।। वि०वि०
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