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पाँचवा अधिकार]
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ही है। – सो ऐसा कहना मिथ्या है। यदि आप शुद्ध हो और उसे अशुद्ध जाने तो भ्रम है,
और आप काम-क्रोधादि सहित अशुद्ध हो रहा है उसे अशुद्ध जाने तो भ्रम कैसे होगा ? शुद्ध जाननेपर भ्रम होगा। सो झूठे भ्रम से अपनेको शुद्धब्रह्म माननेसे क्या सिद्धि है ?
तथा तू कहेगा - यह काम-क्रोधादिक तो मनके धर्म हैं, ब्रह्म न्यारा है। तो तुझसे पूछते हैं - मन तेरा स्वरूप है या नहीं? यदि है तो काम-क्रोधादिक भी तेरे ही हुए; और नहीं है तो तू ज्ञान स्वभाव है या जड़ है ? यदि ज्ञानस्वरूप है तो तेरे तो ज्ञान मन व इन्द्रिय द्वारा ही होता दिखाई देता है। इनके बिना कोई ज्ञान बतलाये तो उसे तेरा अलग स्वरूप मानें, सो भासित नहीं होता। तथा “मनज्ञाने" धातु से मन शब्द उत्पन्न हुआ है सो मन तो ज्ञान स्वरूप है; सो यह ज्ञान किसका है उसे बतला; परन्तु अलग कोई भासित नहीं होता। तथा यदि तू जड़ है तो ज्ञान बिना अपने स्वरूप का विचार कैसे करता है ? यह तो बनता नहीं है। तथा तू कहता है – ब्रह्म न्यारा है, सो वह न्यारा ब्रह्म तू ही है या और है ? यदि तू ही है तो तेरे “ मैं ब्रह्म हूँ" ऐसा मानने वाला जो ज्ञान है वह तो मन स्वरूप ही है, मन से अलग नहीं है; और अपनत्व मानना तो अपनेहीमें होता है। जिसे
रा जाने उसमें अपनत्व नहीं माना जाता। सो मन से न्यारा ब्रह्म है, तो मन रूप ज्ञान ब्रह्ममें अपनत्व किसलिये मानता है? तथा यदि ब्रह्म और ही है तो तू ब्रह्म में अपनत्व किसलिये मानता है ? इसलिये भ्रम छोड़कर ऐसा जान कि जिसप्रकार स्पर्शनादि इन्द्रियाँ तो शरीर का स्वरूप है सो जड है, उसके द्वारा जो जानपना होता है सो आत्मा का स्वरूप है; उसी प्रकार मन भी सूक्ष्म परमाणुओं का पुंज है वह शरीर ही का अंग है। उसके द्वारा जानपना होता है व काम-क्रोधादिभाव होते हैं सो सर्व आत्माका स्वरूप है।
विशेष इतना – जानपना तो निजस्वभाव है, काम-क्रोधादिक औपाधिकभाव हैं, उनसे आत्मा अशुद्ध है। जब काल पाकर काम-क्रोधादि मिटेंगे और जानपने के मन-इन्द्रिय की आधीनता मिटेगी तब केवलज्ञानस्वरूप आत्मा शुद्ध होगा।
इसी प्रकार बुद्धि-अहंकारादिक भी जान लेना; क्योंकि मन और बुद्धि आदिक एकार्थ हैं और अहंकारादिक हैं वे काम-क्रोधादिकवत् औपाधिकभाव हैं; इनको अपनेसे भिन्न जानना भ्रम है। इनको अपना जानकर औपाधिकभावोंका अभाव करने का उद्यम करना योग्य है। तथा जिनसे इसका अभाव न हो सके और अपनी महंतता चाहें, वे जीव इन्हें अपने न ठहराकर स्वच्छन्द प्रवर्तते हैं; काम-क्रोधादिक भावों को बढ़ाकर विषय-सामग्रियोंमें व हिंसादिक कार्यों में तत्पर होते हैं।
तथा अहंकारादिके त्यागको भी वे अन्यथा मानते हैं। सर्वको परब्रह्म मानना, कहीं अपनत्व न मानना उसे अहंकारका त्याग बतलाते हैं सो मिथ्या है; क्योंकि कोई आप
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