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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १२०] [ मोक्षमार्गप्रकाशक है या नहीं? यदि है तो आपमें अपनत्व कैसे न मानें ? यदि आप नहीं है तो सर्वको ब्रह्म कौन मानता है ? इसलिये शरीरादि परमें अहंबुद्धि न करना, वहाँ कर्त्ता न होना सो अहंकार का त्याग है। अपनेमें अहंबुद्धि करने का दोष नहीं है। तथा सर्वको समान जानना, किसीमें भेद नहीं करना, उसको राग-द्वेषका त्याग बतलाते हैं वह भी मिथ्या है; क्योंकि सर्व पदार्थ समान नहीं है। कोई चेतन है, कोई अचेतन है. कोई कैसा है. कोई कैसा है. उन्हें समान कैसे माने ? इसलिये परद्रव्योंको इष्ट-अनिष्ट न मानना सो राग-द्वेष का त्याग है। पदार्थोंका विशेष जानने में तो कुछ दोष नहीं है। इस प्रकार अन्य मोक्षमार्गरूप भावोंकी अन्यथा कल्पना करते हैं। तथा ऐसी कल्पना से कुशील सेवन करते हैं, अभक्ष्य भक्षण करते हैं, वर्णादि भेद नहीं करते, हीन क्रिया आचरते हैं इत्यादि विपरीतरूप प्रवर्तते हैं। जब कोई पूछे तब कहते हैं - यह तो शरीर का धर्म है अथवा जैसी प्रारब्ध (भाग्य) है वैसा होता है, अथवा जैसी ईश्वर की इच्छा होती है वैसा होता है, हमको तो विकल्प नहीं करना। सो देखो झूठ, आप जान-जानकर प्रवर्तता है उसे तो शरीर का धर्म बतलाता है, स्वयं उद्यमी होकर कार्य करता है उसे प्रारब्ध (भाग्य) कहता है, और आप इच्छा से सेवन करे उसे ईश्वर की इच्छा बतलाता है। विकल्प करता है और कहता है - हमको तो विकल्प नहीं करना। सो धर्म का आश्रय लेकर विषयकषाय सेवन करना है, इसलिये ऐसी झूठी युक्ति बनाता है। यदि अपने परिणाम किंचित् भी न मिलाये तो हम इसका कर्त्तव्य न मानें। जैसे - आप ध्यान धरे बैठा हो, कोई अपने ऊपर वस्त्र डाल गया, वहाँ आप किंचित् सुखी नहीं हुआ; वहाँ तो उसका कर्त्तव्य नहीं है यह सच है। और आप वस्त्रको अंगीकार करके पहिने, अपनी शीतादिक वेदना मिटाकर सुखी हो; वहाँ यदि अपना कर्त्तव्य नहीं मानें तो कैसे सम्भव है ? तथा कुशील सेवन करना, अभक्ष्य भक्षण करना इत्यादि कार्य तो परिणाम मिले बिना होते नहीं; वहाँ अपना कर्त्तव्य कैसे न माने ? इसलिये यदि कामक्रोधादि का अभाव ही हआ हो तो वहाँ किन्हीं क्रियाओं में प्रवत्ति सम्भव ही नहीं है। और यदि काम-क्रोधादि पाये जाते हैं तो जिस प्रकार यह भाव थोड़े हों तदनुसार प्रवृत्ति करना। स्वच्छन्द होकर इनको बढाना यक्त नहीं है। तथा कई जीव पवनादिकी साधना करके अपने को ज्ञानी मानते है। वहाँ इड़ा, पिंगला, सुषुम्णारूप नासिकाद्वार से पवन निकले, वहाँ वर्णादिक भेदोंसे पवन ही की पृथ्वी तत्त्वादिरूप कल्पना करते हैं। उसके विज्ञान द्वारा किंचित् साधना से निमित्तका ज्ञान होता है इसलिये जगत को इष्ट अनिष्ट बतलाते हैं, आप महन्त कहलाते हैं; सो यह तो लौकिक Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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