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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ९८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक तब एक हो जाता है। तथा जैसे – सोने का एक डला था, सो कंकन-कुण्डलादिरूप हुआ, फिर मिलकर सोनेका डला हो जाता है। उसी प्रकार ब्रह्म एक था, फिर अनेकरूप हुआ और फिर एक होगा इसलिये एक ही है। इस प्रकार एकत्व मानता है तो जब अनेकरूप हुआ तब जुड़ा रहा या भिन्न हुआ ? यदि जुड़ा रहा कहेगा तो पुर्वोक्त दोष आयेगा। भिन्न हुआ कहेगा तो उसकाल तो एकत्व नहीं रहा। तथा जल सुवर्णादिकको भिन्न होनेपर भी एक कहते हैं वह तो एक जाति अपेक्षा से कहते हैं, परन्तु यहाँ सर्व पदार्थों की एक जाति भासित नहीं होती। कोई चेतन है, कोई अचेतन है, इत्यादि अनेकरूप हैं; उनकी एक जाति कैसे कहे ? तथा पहले एक था, फिर भिन्न हुआ मानते है तो जैसे एक पाषाण फूटकर टुकड़े हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्मके खण्ड होगये, फिर उनका इकट्ठा होना मानता है तो वहाँ उनका स्वरूप भिन्न रहता है या एक हो जाता है ? यदि भिन्न रहता है तो वहाँ अपने-अपने स्वरूप से भिन्न ही हैं और एक हो जाते हैं तो जड़ भी चेतन हो जायेगा व चेतन जड़ हो जायेगा। वहाँ अनेक वस्तुओंकी एक वस्तु हुई तब किसी कालमें अनेक वस्तु, किसी कालमें एक वस्तु ऐसा कहना बनेगा, 'अनादि-अनन्त एक ब्रह्म है'- ऐसा कहना नहीं बनेगा। तथा यदि कहेगाकि लोक-रचना होने से व न होने से ब्रह्म जैसा का तैसा ही रहता है, इसलिये ब्रह्म अनादि-अनन्त है। तो हम पूछते हैं कि लोक में पृथवी, जलादिक देखे जाते हैं वे अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं या ब्रह्म ही इन स्वरूप हुआ है ? यदि अलग नवीन उत्पन्न हुए हैं तो वे न्यारे हुए, ब्रह्म न्यारा रहा; सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म नहीं ठहरा। तथा यदि ब्रह्म ही इन स्वरूप हुआतो कदाचित् लोक हुआ, कदाचित् ब्रह्म हुआ, फिर जैसे का तैसा कैसे रहा? तथा वह कहता है कि - सभी ब्रह्म तो लोक स्वरूप नहीं होता, उसका कोई अंश होता है। उससे कहते हैं - जैसे समद्रका एक बिन्दु विषरूप हुआ, वहाँ स्थूल दृष्टिसे तो गम्य नहीं है. परन्त सक्ष्मदृष्टि देने पर तो एक बिन्द अपेक्षा समद्रके अन्यथापना ह मुद्रके अन्यथापना हुआ। उसी प्रकार ब्रह्मका एक अंश भिन्न होकर लोकरूप हुआ, वहाँ स्थूल विचार से तो कुछ गम्य नहीं है, परन्तु सूक्ष्म विचार करने पर तो एक अंश अपेक्षासे ब्रह्मके अन्यथापना हुआ। यह अन्यथापना और तो किसी के हुआ नहीं है। इस प्रकार सर्वरूप ब्रह्मको मानना भ्रम ही है। तथा एक प्रकार यह है - जैसे आकाश सर्वव्यापी एक है, उसी प्रकार ब्रह्म सर्वव्यापी एक है। यदि इस प्रकार मानता है तो आकाशवत् बड़ा ब्रह्मको मान, और जहाँ घटपटादिक हैं वहाँ जिस प्रकार आकाश है उसी प्रहार ब्रह्म भी है - ऐसा भी मान। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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