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पाँचवाँ अधिकार ]
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भिन्न ही तो है नहीं । सो इस प्रकारसे यदि सब ही की किसी एक जाति अपेक्षा एक ब्रह्म माना जाय तो ब्रह्म कोई भिन्न तो सिद्ध हुआ नहीं।
तथा एक प्रकार यह है कि पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं, उनके मिलापसे एक स्कन्ध हो उसे एक कहते हैं। जैसे जलके परमाणु न्यारे-न्यारे हैं, उनका मिलाप होनेपर समुद्रादि कहते हैं; तथा जैसे पृथ्वीके परमाणुओंका मिलाप होनेपर घट आदि कहते हैं; परन्तु यहाँ समुद्रादि व घटादिक हैं, वे उन परमाणुओंसे भिन्न कोई अलग वस्तु तो नहीं है । सो इस प्रकारसे सर्व पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं, परन्तु कदाचित् मिलकर एक होजाते हैं वह ब्रह्म है ऐसा माना जाये तो इनसे अलग तो कोई ब्रह्म सिद्ध नहीं हुआ।
तथा एक प्रकार यह है कि
वह
अंग तो न्यारे-न्यारे हैं और जिसके अंग हैं अंगी एक है। जैसे नेत्र, हस्त, पादादिक भिन्न-भिन्न हैं और जिसके यह हैं वह मनुष्य एक है। सो इस प्रकारसे यह सर्व पदार्थ तो अंग हैं और जिसके यह हैं वह अंगी ब्रह्म है। यह सर्व लोक विराट स्वरूप ब्रह्मका अंग है ऐसा मानते हैं तो मनुष्यके हस्तपादादिक अंगोंमें परस्पर अंतराल होनेपर तो एकत्वपना नहीं रहता, जुड़े रहने पर ही एक शरीर नाम पाते हैं । सो लोकमें तो पदार्थोंके परस्पर अंतराल भासित होता है; फिर उसका एकत्वपना कैसे माना जाय? अंतराल होनेपर भी एकत्व माने तो भिन्नपना कहाँ माना जायेगा ?
यहाँ कोई कहे कि— समस्त पदार्थोंके मध्यमें सूक्ष्मरूप ब्रह्मके अंग हैं उनके द्वारा सब जुड़ रहे हैं। उससे कहते हैं :
जो अंग जिस अंगसे जुड़ा है वह उसीसे जुड़ा रहता है या टूट-टूटकर अन्य-अन्य अंगोंसे जुड़ता रहता है ? यदि प्रथम पक्ष ग्रहण करेगा तो सूर्यादि गमन करते हैं, उनके साथ जिन सूक्ष्म अंगोंसे वह जुड़ता है वे गमन करेंगे। तथा उनके गमन करनेसे वे सूक्ष्म अंग अन्य स्थूल अंगोंसे जुड़े रहते हैं वे भी गमन करेंगे इस प्रकार सर्व लोक अस्थिर हो जायेगा। जिस प्रकार शरीरका एक अंग खींचने पर सर्व अंग खिच जाते हैं; उसी प्रकार एक पदार्थके गमनादि करनेसे सर्व पदार्थोंके गमनादि होंगे सो भासित नहीं होता । तथा यदि द्वितीय पक्ष ग्रहण करेगा तो अंग टूटनेसे भिन्नपना हो ही जाता है, तब एकत्वपना कैसे रहा? इसलिये सर्व-लोकके एकत्वको ब्रह्म मानना कैसे सम्भव हो सकता है ?
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तथा एक प्रकार यह है कि पहले एक था, फिर अनेक हुआ, फिर एक हो जाता है; इसलिये एक । जैसे जल एक था सो बर्तनोंमें अलग-अलग हुआ, फिर मिलता है
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