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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पाँचवा अधिकार] परन्तु जिस प्रकार घटपटादिकको और आकाश को एक ही कहें तो कैसे बनेगा? उसी प्रकार लोक को और ब्रह्मको एक मानना कैसे सम्भव है ? तथा आकाश का लक्षण तो सर्वत्र भासित है, इसलिये उसका तो सर्वत्र सद्भाव मानते हैं; ब्रह्मका लक्षण तो सर्वत्र भासित नहीं होता, इसलिये उसका सर्वत्र सद्भाव कैसे माने ? इस प्रकार से भी सर्वरूप ब्रह्म नहीं है। ऐसा विचार करने पर किसी भी प्रकार से एक ब्रह्म संभवित नहीं है। सर्व पदार्थ भिन्न-भिन्न ही भासित होते हैं। यहाँ प्रतिवादी कहता है कि - सर्व एक ही है, परन्तु तुम्हे भ्रम है इसलिये तुम्हे एक भासित नहीं होता तथा तुमने युक्ति कही सो ब्रह्म का स्वरूप युक्ति गम्य नहीं है, वचन अगोचर है। एक भी है, अनेक भी है; भिन्न भी है, मिला भी है। उसकी महिमा ऐसी ही है। उससे कहते हैं कि - प्रत्यक्ष तुझको व हमको व सबको भासित होता है उसे तो तू भ्रम कहता है। और युक्ति से अनुमान करें सो तू कहता है कि सच्चा स्वरूप युक्तिगम्य है ही नहीं। तथा वह कहता है - सच्चा स्वरूप वचन अगोचर है तो वचन बिना कैसे निर्णय करें? तथा कहता है - एक भी है. अनेक भी है; भिन्न भी है. मिला भी है; परन्त उनकी अपेक्षा नहीं बतलाता; बावले की भाँति ऐसे भी हैं, ऐसे भी हैं - ऐसा कहकर इसकी महिमा बतलाता है। परन्तु जहाँ न्याय नहीं होता वहाँ झूठे ऐसा ही वाचालपना करते हैं सो करो, न्याय तो जिस प्रकार सत्य है उसी प्रकार होगा। सृष्टिकर्तावादका निराकरण तथा अब, उस ब्रह्मको लोक का कर्त्ता मानता है उसे मिथ्या दिखलाते हैं। प्रथम तो ऐसा मानता है कि ब्रह्मको ऐसी इच्छा हुई कि - ‘एकोऽहं बहुस्यां' अर्थात् मैं एक हूँ सो बहुत होऊँगा। वहाँ पूछते हैं – पूर्व अवस्था में दुःखी हो तब अन्य अवस्था को चाहे। सो ब्रह्म ने एक अवस्था से बहुत रूप होने की इच्छा कि तो उस एकरूप अवस्था में क्या दुःख था ? तब वह कहता है कि दुःख तो नहीं था, ऐसा ही कौतूहल उत्पन्न हुआ। उसे कहते हैं - यदि पहले थोड़ा सुखी हो और कौतूहल करने से बहुत सुखी हो तो कौतूहल करने का विचार करे। सो ब्रह्मको एक अवस्था से बहुत अवस्था रूप होने पर बहुत सुख होना कैसे संभव है ? और यदि पूर्व ही सम्पूर्ण सुखी हो तो अवस्था किस लिये पलटे ? प्रयोजन बिना तो कोई कुछ कर्त्तव्य करता नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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