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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ तत्वसार - टीका श्री देवसेनाचार्य विरचित टीका- ब्र.-शितलप्रसादजी कृत [1] भावार्थ- अपने जीव तत्वको ऐसा जाने कि मैं चेतन स्वरूप हूं, असंख्यात प्रदेशी हूं, अमूर्तीक हूं, शुद्धात्मा हूं, सिद्ध भगवान के समान हूं ज्ञान दर्शन लक्षण का धारी हूं। जब जीव तत्व को अजीव से भिन्न मनन किया जायगा तब वह बिलकुल शुद्ध स्वभावमें ही झलकेगा। [A] जैसा आत्मा द्रव्य का परसंयोग रहित मूल स्वभाव है उसका उसी रूप स्वसंवेदन होना अविकल्प तत्त्व का लाभ है । इन्द्रिय और मन वश होते ही यह स्वयं झलक जाता है । [ गाथा, ६-७ ] [A] भावार्थ- जो कोई समाधि में स्थित हो परन्तु ज्ञान स्वरूपी अपने आत्मा को अनुभव न करे तो उसके आत्मध्यान है ही नहीं वह मूर्छावान है, परभाव में लीन है वह मोही है। जो आत्माको ही अनुभव करता है वह उत्तम एकाग्रताको लाभ करता है कि बाहरी पदार्थ के रहते हुए भी उसके भीतर केवल अपने एक आत्माको अपने में अनुभव करते हुए और कोई पदार्थ नहीं झलकता है उसे एक अद्वैत निज भाव का ही स्वाद आता है । [ गाथा- ४६, पृष्ठ-१२० ] [A] भावार्थ- आत्मा का उपयोग एक समयमें एक विषय पर जमता है । साधारण मानव निरंतर पांच इन्द्रिय तथा मन इन छह द्वारोके द्वारा उपयोग से काम किया करता है। एक समयमें एक ही द्वारसे उपयोग जानता है शीघ्र पलट कर दूसरे द्वार पर चला जाता है। इसी उपयोग को उपयोगवान अपने आत्मामें जमादें तब ही अविकल्प तत्वमय आप हो जाता है। आत्मा स्वभाव से निर्विकल्प है ही, आप स्वभाव में है ही । [ गाथा-६-७, पृष्ठ-४६, ४७,४८] (द्रव्य ) ४शाय छे ते पर्यायथी ४शाय छे ने ! द्रव्यथी द्रव्य न शाय. आडाडा ! જ્ઞાનની પર્યાય આમ જ્યારે (દ્રવ્ય તરફ ) વળે છે ત્યારે તે પર્યાય પોતે જ દ્રવ્યને જાણે છે અને તે પર્યાય ( રાગ ) બાજુ ઢળેલી હોય ત્યારે પર્યાય પોતે રાગને જાણે છે– -खा पर्याय दृष्टि थर्ध, (भ्यारे ) पेली द्रव्य दृष्टि छे. — ૪૫ ( अवयन सुधा भाग-१ येऽ४ नं-4१ )
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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