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________________ 3७ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ बहिर्जेय दोनोंके अस्तित्वको स्वीकृत करते हैं। स्तुति-५, श्लोक-१०, पृष्ठ-६१] [.] भावार्थ- जानते समय इन द्रव्योंके मूर्तिक और अमूर्तिक प्रदेश तथा उनकी क्षण क्षणवर्ती पर्याय आपके ज्ञान में सब और से छलकते हैं--प्रतिभासित होते हैं। इनका छलकना भी दर्पणमें पडनेवाले प्रतिबिम्बके समान है अर्थात् जिस प्रकार दर्पणमें अपने भीतर प्रतिबिम्बित पदार्थों के प्रति किसी प्रकारका ममताभाव नहीं होता है उसी प्रकार आपके ज्ञानमें छलकने वाले इन ज्ञेयोंके प्रति आपका कोई ममताभाव नही रहता। इसी अभिप्रायको यहाँ 'केवलं' शब्दसे प्रगट किया गया है। [स्तुति-५, श्लोक-१४ , पृष्ठ-६२] अन्वयार्थ- ज्ञानमें प्रतिभासित वे द्रव्य खण्ड ज्ञानकी परिणति होने के कारण यद्यपि उन द्रव्योंके बिना प्रदेशोंसे शून्य हैं तथापि पृथक्-पृथक् सुशोभित होते हैं-- प्रतिफलन रहते हैं। भावार्थ- अखण्ड महासता एक हैं, परन्तु जब उसमें अवान्तर सत्ताकी अपेक्षा खण्ड कल्पना की जाती है तब उसके द्रव्य-गुण आदि अनेक भेद हो जाते हैं। भगवान् के केवलज्ञानमें उन सब अनेक भेदोंका प्रतिबिम्बि पडता है और केवलज्ञान के क्षायिक होने से वह प्रतिबिम्बि उसमें सदा पडता रहता हैं, इसलिये ऐसा जान पडता है मानों वे द्रव्य के अनेक भेद उसीमें रत हो गये हों--लीन हो गये हों। क्षायोपशमिकज्ञान क्रमवर्ती होता है, अत: उसमें प्रतिबिम्बित पदार्थ सदा के लिए लीन नहीं होता, परन्तु क्षायिक ज्ञान अक्रमवर्ती है एक साथ समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है इसलिए जो भी पदार्थ उसमें प्रतिबिम्बित होते हैं वे उसीमें लीन हो जाते हैं। केवलज्ञानमें जो पदार्थ आये हैं वे अन्तर्जेय बनकर आये है, अत: परमार्थसे वे प्रदेशोंसे शून्य है, क्योंकि प्रदेशोंका विभाग बहिर्शेयोमें ही रहता है अन्तर्जेयमें नहीं। एतावता वे अन्तर्जेय यद्यपि बहि योके प्रदेशोंसे शून्य हैं तो भी भगवान के ज्ञानमें पृथक-पृथक ही प्रतिभासित होते हैं। [स्तुति-५, श्लोक-१६ , पृष्ठ-६३ ] [] भावार्थ- हे भगवन् ! आपके ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होनेवाले पदार्थ यद्यपि स्वयं अनन्त हैं तथापि वे प्रतिसमय होनेवाले परिणमनों की अपेक्षा और भी अधिक अनन्त हो जाते है। 'अनन्त पदार्थ फिर भी अनन्तताको प्राप्त होते है, इसकी एक विवक्षा यह भी जान पडती है कि आपके ज्ञानमें आये हुए पदार्थ कालकी अपेक्षा अनन्ताको प्राप्त हैं, क्योंकि आपके ज्ञानमें आये हुए पदार्थ अनन्त काल तक यथावत् प्रतिभासित् होते रहते है। तात्पर्य यह है कि आप अनन्त पदार्थों की अनन्त पर्यायोंको एक साथ जानते हैं। [स्तुति-५, श्लोक-१८, पृष्ठ-६४ ]
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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