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________________ _૩૫ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ [] अन्वयार्थ- उसी समय सहज-स्वाभाविक वीर्य गुण के प्रगट होने से यह शान्त अनन्त तेज प्रगट होता है जिसके भीतर प्रगटित होते हुए अनन्त पदार्थोंसे युक्त तथा अनन्तरुपोंसे संकीर्ण एवं पूर्ण महिमावाला लोकालोक प्रतिभासित होता है। भावार्थ- इसी गुणस्थानमें अनन्तवीर्यके साथ सहज शान्त, केवलज्ञानरुप, वह अनन्त तेज प्रगट होता है जिसमें अनन्तानन्त पदार्थों से व्याप्त समस्त विश्व प्रतिबिम्बित होता है। [स्तुति-३ श्लोक-१९, पृष्ठ-४०] [.] भावार्थ- ज्ञानगुण की स्वच्छताके कारण आप समस्त विश्व के ज्ञायक हैं, इसलिये ऐसा प्रतित होता है कि इस विश्वको आप हठात् अपने आपमें संक्रान्त कर रहे हों, अपने आपमें लिख रहे हों, अपनी और खींच रहे हों, अपने आपमें संरक्षित कर रहे हों, और उसका पान कर रहे हों। साथ ही अनन्त बलसे परिपूर्ण दृष्टि के विकाससे एसा जान पडता है कि आप मानों समस्त दिशाओंमे स्वयं ही स्फुटित हो रहे हों। [स्तुति-३, श्लोक-२४ , पृष्ट-४३] अन्वयार्थ- हे नाथ ! आत्मज्ञान से सुशोभित लोकोत्तर तेजसे सम्पूर्ण जगतको प्रकाशित करते हुए भी आप सर्वदा परके स्पर्शसे पराङमुख रहते हैं तथा परसे पृथक् प्रतिमासित होते है। भावार्थ- जिस प्रकार दर्पण बाह्य पदार्थों को प्रतिबिम्बित करता हुआ भी उनसे दूर रहता है उसी प्रकार आप भी लोकालोकको जानते हुए भी उनके स्पर्शसे सदा दूर रहते है। [स्तुति-४, श्लोक-२०, पृष्ठ-५३] [.] भावार्थ- वीतराग जीव इच्छापूर्वक पदार्थों को नहीं जानता इसलिये उसका ज्ञायक स्वभाव परसे पराङमुख है। हे भगवन्। यतः आप वीतराग हैं अत: आपका ज्ञायक स्वभाव परसे पराङमुख है। परन्तु पराडमुख होने पर भी उसमें पर पदार्थों का प्रतिफलन होता ही है। जिस प्रकार दर्पणमें यह इच्छा नहीं है कि मुझमें घट-पटादि पदार्थ प्रतिबिम्बित होवे परन्तु उसकी स्वच्छताके कारण वे उसमें प्रतिबिम्बित होते ही है इसी प्रकार आपकी ऐसी इच्छा नहीं है कि हम पदार्थों को जाने, फिर भी ज्ञानगुणकी निर्मलताके कारण उसमें पदार्थ प्रतिबिम्बित होते ही है। [स्तुति-४ , श्लोक-२१, पृष्ठ-५३ ] अन्वयार्थ- यत: जिस कारण घट-पटादिके भेदसे बाह्य पदार्थों की आकृतिको धारण करनेवाले ये पदार्थ आपमें ज्ञान रुपताको धारण करते हैं। भावार्थ- जिस प्रकार पदार्थके निमित्तसे दर्पणका पदार्थाकार परिणमन वास्तवमें दर्पणकी ही अवस्था है उसी प्रकार आपके ज्ञानमें प्रतिबिम्बित-ज्ञेयाकार होकर आये हुए घट-पटादि पदार्थ वास्तवमें ज्ञानकी पर्याय होने से ज्ञान ही [.] अन्वयार्थ -
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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