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________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ हैं। वास्तवमें जितने भी जगत में बाह्य ज्ञेय हैं, वे सभी आपके अन्तर्ज्ञेय अवश्य हैं, इस अपेक्षा अंतर्ज्ञेय तथा बहिर्ज्ञेय के द्वैत की सिद्धि होती है, तथापि अन्तर्ज्ञेय मात्र ज्ञान का परिणमन है अथवा ज्ञान ही है, अत: इस अपेक्षा ज्ञान का अद्वैत जिनमत में मान्य है । [ स्तुति - २०, छंद नं-१३, पृष्ठ-३३०-३३१ ] [A] भावार्थ- यह कहा गया है कि चेतन-अचेतन जितने भी लोक के ज्ञेयपदार्थ हैं, वे सभी आपके ज्ञान में झलकने पर चेतनता को प्राप्त होते हैं, अथवा चेतन ज्ञेयपदार्थ तो ज्ञान में चेतनरूप होते ही हैं, परन्तु अचेतन ज्ञेय पदार्थ भी ज्ञान में चेतन ही होते हैं, क्योंकि अंतर्ज्ञेय रुप समस्त परिणमन ज्ञान का ही है, ज्ञेयों का नहीं। एसा होने पर भी वे समस्त बाह्य ज्ञेय अपनी विचित्रता को नहीं छोडतें, वे अनन्त ही बने रहते हैं तथा अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् अर्थक्रिया भी करते रहते हैं इससे स्पष्ट है कि ज्ञान में झलकने से ज्ञेयों को चेतनरुप होना कहा हैं, परंतु वास्तव में ज्ञेय-ज्ञेयरुप ही रहते हैं, ज्ञानरुप कदापि नहीं होते। [ स्तुति - २०, छंद नं-१४, पृष्ठ-३३१ ] 30 - [1] भावार्थ- हे जिनेन्द्र भगवान ! यधपि आप के ज्ञान में समस्त परपदार्थ स्थित- प्रतिबिम्बित हैं, तथापि वे सभी पदार्थ परस्पर में अपोहरुप होने से अर्थात् अपने अपने गुण–पर्यायों में ही परिणमित होते रहने से, वे कभी भी आपको विक्रिया-विकार पैदा नहीं कर सकते । इसी कारण से आप समस्त उपद्रवों को शान्त करके निज ज्ञानानन्द स्वभाव के अनुभवन में तल्लीन हैं। [ स्तुति- २०, छंद नं-१९, पृष्ठ-३३४ ] [A] भावार्थ- हे प्रभो ! आपसे तीनों लोक पृथक् होने के कारण तीनों लोक गत हैं तथा तीनों लोकों से आप पृथक् होने के कारण आप गत हैं अर्थात् तीनों लोक पृथक् रहकर भी आपके ज्ञान में झलकते हैं, अतः तीनों लोक आप में गत - लीन हैं तथा तीनों लोक से पृथक् रहकर भी आपका ज्ञान उन्हें विषय बनाता है अत: आप तीनों लोक में गत हैं, इसीलिए आप गत, सुगत एवं तथागत नाम से कहे जाते हैं । वास्तव में तीनों लोक कभी भी आपमें नहीं आते तथा आप कभी भी तीनों लोक के पास नहीं जाते आप तो सदा आप में ही रहते हैं, अत: आप गत, सुगत और तथागत न होकर अगत ही हैं। [ स्तुति - २०, छंद नं-२० पृष्ठ - ३३५ ] [A] अन्वयार्थ - द्रव्य - पर्यायरुप पदार्थ आपके ज्ञान के द्वारा पिया गया है- जाना गया है, इस प्रकार वास्तव में यह सब ज्ञानमय प्रतिभासित होता है और आपके अरवण्ड ज्ञानरुप में यह सत् आपकी तन्मयता को कभी भी नहीं छोडता है। भावार्थ- जो पदार्थ आपके ज्ञान द्वारा जाना जाता है, वह पदार्थ अंतर्ज्ञेय की
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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