SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ ૨૯ [] भावार्थ- ज्ञानज्योति स्वरुप से ही स्व-पर प्रकाशक है, अत: उस ज्ञानज्योति विभा के प्रकाशन के लिए अन्य विभा की जरुरत नहीं होती। जिनेन्द्र की ज्ञानज्योति में सर्व पदार्थ अपनी-अपनी क्रमबद्ध पर्यायों सहित झलकते हैं। [स्तुति-१९, छंद नं-२३, पृष्ठ-३१९] [.] नाना ज्ञेयाकृतियों को धारण करके भी आप अप्रतिहत वैभववाले बने रहेते हैं। ज्ञान में ज्ञेय-स्वयमेव प्रतिबिम्बित होते हैं, तभी तो ज्ञेयों के अस्तित्त्व की प्रसिद्धि होती है। आपका ज्ञान समस्त जगत् को व्याप्त करता है। आपका पर में तथा पर का आप में अभाव ही है, किन्तु मन्दबुद्धियों को यह बात समझ में नहीं आती है। [स्तुति-२० की भूमिका में से, पृष्ठ-३२१] [.] भावार्थ- हे जिनेन्द्र ! आपके ज्ञान स्वभाव की ऐसी ही अर्थक्रिया है कि उसमें सहज ही अनंत ज्ञेयों की आकृतिर्यां झलकती हैं, तथापि वे ज्ञेय आपके ज्ञान स्वभाव को क्षति नहीं पहुंचा सकते। वास्तव में आप तो एक अप्रतिहत वैभव वाले तथा विज्ञान धनस्वभावी ही सुशोभित होते हैं। [स्तुति-२०, छंद-११, पृष्ठ-३२९] (બૌદ્ધમતના જ્ઞાન અદ્વૈતનું ખંડન, જૈનમતના જ્ઞાન અદ્વૈતનું ખંડન) [] भावार्थ- निश्चय से ज्ञेयों का ज्ञान में प्रवेश अशक्य होने से ज्ञान में जो ज्ञेयाकाररुप परिणमन होता है, वह परिणमन ज्ञान का ही कार्य है, ज्ञेयों का नहीं। यहाँ बौद्धमत सम्मत ज्ञान-अद्वैत का खण्डन तथा जिनमत सम्मत ज्ञान-अद्वैत का मण्डन-स्पष्टीकरण किया गया है। बौद्धमती अन्तर्जेय मात्र को स्वीकारते है, बाह्य ज्ञेय के भिन्न अस्तित्व को नहीं मानते, ऐसा अद्वैतसिद्धान्त वस्तु स्वरुप के विरुद्ध है। जैनमत सम्मत ज्ञान-अद्वैत बाह्य ज्ञेयों की सत्ता प्रमाणित करता है- मानता है, परंतु अन्तर्जेय में बाह्यज्ञेय के प्रवेश को स्वीकार नहीं करता। अनंत ज्ञेयाकार ज्ञान में हो तो भी ज्ञान में ज्ञेयों का कुछ भी नहीं है, ज्ञान का ही सब कुछ परिणमन है। ऐसा अद्वैत जिनमत को स्वीकार्य है, क्योंकि वह वस्तु का स्वरुप है। [स्तुति-२०, छंद नं-१२, पृष्ठ-३३०] [.] अन्वयार्थ- यदि निश्चय से आप स्वयं घटादिरुप न हों अर्थात् घटादिक आप के ज्ञान में प्रतिफलित न हो तो क्या बाह्य पदार्थों की सिद्धि हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। हे नाथ! आप जब स्वयं घटादि रुप से विद्यमान हैं, तब हे प्रभो! बाह्य पदार्थों की सिद्धि किसलिए है ? भावार्थ- हे प्रभो! जब अन्तरोध अपेक्षा आप स्वयं घटादिरुप परिणमते हैं, तभी बाह्यज्ञेयरुप घटादि की सिद्धि होती है, परंतु जो ज्ञेय सत्तावान् नहीं हैं, वे आपके अन्तर्जेय भी नहीं होते, जिस प्रकार बन्ध्यापुत्र, रवरविषाण, आकाशकुसुमरुप ज्ञेयोंकी सत्ता ही नहीं है, अत: वे आपके अन्तर्जेय भी नहीं
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy