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________________ ૨ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ को छोडे बिना ही ज्ञान में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बित मयूर बाह्य स्थित मयूर का प्रतिबिम्ब रूप कार्य होने से मयूर ही कहलाता है, उसी प्रकार ज्ञान में प्रतिबिम्बित सर्व लोकालोक बाह्य स्थित लोकालोक का प्रतिबिम्ब रूप कार्य होने से सर्व लोकालोक ही कहलाता है । अत: सर्व को जानने की अपेक्षा आत्मा सर्वगत है, ऐसा कहा गया है। जिसप्रकार ज्ञान स्वभावी सर्वज्ञ ज्ञानमय स्वक्षेत्र से बाहर गये बिना ही सर्वगत है; उसी प्रकार शरीर स्थित सर्वज्ञ [ १३ वें १४ वें गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा ] शरीर से बाहर गये बिना ही सर्वगत हैं । इसप्रकार आत्मा की ज्ञानमयता तथा पदार्थों की ज्ञेयमयता के कारण अपने-अपने क्षेत्र का त्याग किये बिना ही क्रमश: सर्वज्ञ सर्वगत तथा पदार्थ सर्वगत हैं, ऐसा व्यवहार से कहा गया है। [ गाथा-२७, पंक्ति-७, पृष्ठ-४७-४८ ] [4] जैसे रूपी द्रव्य नेत्र के साथ परस्पर में सम्बन्ध का अभाव होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ हैं और नेत्र भी उनके आकार को ग्रहण करने में समर्थ हैं, उसीप्रकार तीनलोक रूपी उदरविवर [ छिद्र ] में स्थित, तीनकाल सम्बन्धी पर्यायों से परिणमित पदार्थ, ज्ञानके साथ परस्पर प्रदेशों का सम्बन्ध नहीं होने पर भी अपने आकार को समर्पित करने में समर्थ है; अखण्ड एक प्रतिभासमय केवलज्ञान भी उनके आकारों को ग्रहण करने में समर्थ है— यह भाव है। [ गाथा-२९, पंक्ति-१९पृष्ठ-५० ] [1] अथ ज्ञानी ज्ञेयपदार्थेषु निश्चयनयेनाप्रविष्टोऽपिव्यवहारेण प्रविष्ट इव प्रतिभाति शक्तिवैचित्र्यं दर्शयति अब, निश्चयनय से ज्ञानी ज्ञेयपदार्थों में प्रविष्ट नहीं हुआ होने पर भी व्यवहार से प्रविष्ट की र्भांति ज्ञात होता है; ऐसी शक्ति की विचित्रता को दिखाते हैं। [ पंक्ति-१, पृष्ठ-५९ ] [1] टीकार्थ- यदि वे पदार्थ अपने ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा दर्पण में बिम्ब के समान वे पदार्थ कह नही हैं ? यदि वे पदार्थ केवलज्ञान में नहीं हैं। तो ज्ञान सर्वगत नहीं हो सकता। यदि आपको व्यवहार से सर्वगत ज्ञान स्वीकृत है, तो अपने ज्ञेयाकारों को जानकारी रूप से समर्पित करने की अपेक्षा व्यवहारनय से वे पदार्थ ज्ञान में स्थित कैसे नहीं हैं, वरन् हैं ही। यह अभिप्राय यह है कि जिस कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकारों को ग्रहण करने की अपेक्षा ज्ञान सर्वगत कहलाता है, उसी कारण व्यवहार से ज्ञेय सम्बन्धी ज्ञानाकार समर्पण की अपेक्षा पदार्थ भी ज्ञानगत कहलाते हैं। भावार्थ- जैसे दर्पण में दिखनेवाला प्रतिबिम्ब व्यवहार से दर्पण में ही
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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