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________________ ।।श्री वीतरागाय नमः।। श्री प्रवचनसार - प्राभृत श्रीमद् भगवत् कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत- श्री जयसेन आचार्यदेवकृत टीका[.] टीकार्थ-...वह इसप्रकार–अतीन्द्रिय स्वभावी परमात्मा से विपरीत क्रमसे प्रवृत्ति की कारणभूत इन्द्रियों से रहित तीनलोक, तीनकालवर्ती समस्त पदार्थों को एक साथ जानने में समर्थ, अविनाशी, अखण्ड एक प्रतिभासमय [ ज्योतिस्वरुप] केवलज्ञानरुप से परिणत उन भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है-यह भाव है। [गाथा-२३, पंक्ति -१६, पृष्ठ- ४२] [.] टीकार्थ- सर्वगत हैं। कर्तारूप वे सर्वगत कौन हैं ? सर्वज्ञ सर्वगत हैं। सर्वज्ञ सर्वगत क्यों हैं ? सर्वज्ञजिन ज्ञानमय होने के कारण सर्वगत हैं। और वे जगत् के सभी पदार्थ, दर्पण में बिम्ब के समान, व्यवहार से उन भगवान में गये हैं। वे पदार्थ भगवान में गये हैं, यह कैसे जाना ? वे पदार्थ वहीं गये हैं- ऐसा कहा गया है। ज्ञानके विषय होने से वे पदार्थ भगवानमें गये हैं-किसके ज्ञेय होने से वे गये हुये कहे गये हैं ? उन भगवान के ज्ञेय होने से वे भगवान में गये हुये कहे गये हैं। वह इसप्रकार- जो अनन्तज्ञान और अनाकुलता लक्षण अनन्त सुख का आधार है वह आत्मा है। ऐसा होने से आत्मप्रमाण ज्ञान आत्मा का अपना स्वरूप है। ऐसे अपने स्वरूप को तथा शरीर में रहने रूप स्थिति को नहीं छोड़ते हुये ही वे सर्वज्ञ लोकालोक को जानते हैं। इसलिये व्यवहार से भगवान सर्वगत कहे गये हैं। और दर्पण में बिम्ब के समान क्योंकि नीले , पीले आदि बाह्य पदार्थ जानकारी रूप से ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं [ झलकते है], इसलिये पदार्थों के कार्यभूत पदार्थाकार भी पदार्थ कहलाते हैं, और वे ज्ञान में स्थित हैं- ऐसे कथन में दोष नहीं है- यह अभिप्राय है। भावार्थ- जैसे दर्पण की स्वच्छता दर्पण के स्वरूप तथा दर्पण के आकार के बराबर है, उसे छोडे बिना दर्पण यथायोग्य पदार्थों को प्रतिबिम्बित करता है, तथा उन पदार्थों में प्रतिबिम्बित होने का स्वभाव होने से अपने स्थान को छोडे बिना ही वे दर्पण में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं; उसी प्रकार ज्ञानानन्द के आधारभूत आत्मा का ज्ञान आत्मा के स्वरुप तथा आत्मा के आकार के बराबर है, उसे छोडे बिना ही वे सर्वज्ञ परमात्मा सर्वलोकालोक को जान लेते हैं। तथा सर्व लोकालोक ज्ञान का विषय होने से- ज्ञेय स्वभावी होने से, वे भी अपने स्थान
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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