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________________ ६४ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ [ 1 ] आत्मा ज्ञान भी और ज्ञेय भी । शेष पदार्थ तो ज्ञेय ही हैं। इसप्रकार ज्ञाता और ज्ञेयका विभाग है। ज्ञानका कोई न कोई ज्ञेय अवश्य होता है। ज्ञान का कोई ज्ञेय नहीं हो तो ज्ञान ही सिद्ध नहीं होगा। ज्ञानका ज्ञेय यदि परद्रव्यों को बनाया जाये अर्थात् परद्रव्यों को जाना जाये तो निरन्तर इन्द्रियादि परद्रव्यों के परतंत्र होने का प्रसंग उपस्थित होगा। यदि ज्ञानका ज्ञेय निज द्रव्य को ही बनाया जाये तो सतत स्वतंत्रता होगी। एक समय में इन्द्रियज्ञान से बाह्य विषय को जाना जा सकता है अथवा अतीन्द्रियज्ञान से निज आत्मा । साधक के उपयोग का विषय एक समय में एक ही होगा – स्व अथवा पर साधक स्वानुभव के समय शरीरादि परद्रव्य जानने में नहीं आते। [ पृष्ठ-६ ] [] मन इन्द्रियों के बिना ही स्वसन्मुखता द्वारा होने वाले स्वयं के साक्षात् निर्विकल्प अतीन्द्रिय सुखरूप आस्वादन को स्वसंवेदन कहते हैं । सुख, आनन्द, शांति, तृप्ति, विश्रांति, चैन, निराकुलता, ये सब एकार्थक हैं। स्वसंवेदन के साथ चैतन्य की अनन्त शक्तिर्यां स्वयमेव उछलती हैं, सम्यकपने परिणमित होती हैं। इसलिए स्वसंवेदनज्ञान को 'आत्माका' स्वरूप अथवा आत्मा ही कहा गया है। स्वसंवेदनके समय आप ही ज्ञाता है, आप ही ज्ञेय है और आप ही ज्ञान है। यही अनुभव है, जो मोक्ष का मार्ग है और यही मोक्ष का स्वरूप है। वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञानरूप आत्मज्ञान ही ज्ञान है। आत्मज्ञान से ही आत्माको ज्ञायक संज्ञा है, मन - इन्द्रिय जनित ज्ञान से नहीं । [ पृष्ठ-१५ ] [1] जैसे निर्मल दर्पण में पुरुष के समस्त अवयव और लक्षण दिखाई देते है, उसी तरह ध्यान में निज परमात्मा के समस्त प्रवेशरूप अवयव और पर्यायरूप लक्षण स्वसंवेदन प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । [ पृष्ठ-१६ ] [1] जिसने स्वयं को नहीं जाना उसका सब ज्ञान अज्ञानरूप है। जिसने स्वयं को जाना, उसका स्वानुभव कालमे परको उपयोगरूप नहीं जानना भी रत्नत्रयरूप है, संवररूप है निर्जरारूप है, मोक्षमार्ग है। उसका परका कुछ भी उपयोगरूप नहीं जानना भी अपूर्व है । परज्ञेय सन्मुखता में परज्ञेयका राग गर्भित है, इसलिए परज्ञेय सन्मुख ज्ञान बंध का कारण है और संसारस्वरूप है । निज आत्मद्रव्य के सन्मुख ज्ञान मोक्ष का कारण है और ज्ञानका स्वसन्मुख स्थिर हो जाना ही मोक्ष है। अपने को सतत स्वसंवेदन प्रत्यक्ष देखना परमात्मा होने की विधि है। अपने स्वसन्मुख होने से परमात्मसुख का स्वाद प्रगट होता है। परद्रव्योंकी और देखने में परतंत्रता और दुःख है । हमारे चित में स्वयं अपनी ख्याति हो, अपने परिचय में रहे, अपने को स्वसंवेदनरूप देखें, अनुभव करें, इसी में हम
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
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