SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ મંગલ જ્ઞાન દર્પણ ભાગ-૧ ध्यानामृत लेखक एवं संकलन - पं. ज्ञानचन्द जैन , जयपुर ध्यानका सामान्य स्वरूप एवं महत्व [A] शुद्ध-बुद्ध – एकस्वभाव आत्मा –परमात्मा प्राप्त निज देह में रहता है और स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जाना जाता है। जो प्राणी स्वसंवेदनज्ञान सहित हैं, वे विचक्षण हैं। स्वसंवेदनज्ञान में आत्मा स्वयं ही ज्ञेय तथा ज्ञायक होता है। सर्व पर द्रव्यों से अपने उपयोग को हटाकर अंतर्मुख होकर निज आत्मा को अपने उपयोग का विषय बनाने पर स्वसंवेदनज्ञान प्रगट होता है। निज शुद्धात्मा को ज्ञेय बनाने से अल्पज्ञ शीध्र ही सर्वज्ञ होता है। स्वसन्मुख मति-श्रुतज्ञान शीध्र ही केवलज्ञान रूप होता है। स्वसन्मुखतामें धर्मध्यान होता है, जो शीध्र ही शुकलध्यानरूप होता है। शुक्लध्यान से अरिहन्त सिद्ध अवस्था प्रगट होती है। इसलिए स्वसन्मुखता चिन्तामणि रत्न है, अतिन्द्रिय आनन्दामृतका सागर है, सुखका मार्ग है, सुख स्वरूप है, साधक एवं सिद्धका स्वरूप है। निज शुद्धात्मा को छोडकर अन्य अशेष द्रव्य ध्याता के उपयोग की प्रवृति के अयोग्य हैं। [पृष्ठ-३-४] श्रीमद अकलंकदेव विरचित स्वरूपसंबोधन-पंचविशति: श्लोक १९ की कन्नड टीका करते हुए श्री महासेन पंडितदेव कहते है- 'ज्ञेयभूत अन्य वस्तुओं के ज्ञान से भी रहित हो जाओ।' दूसरे शब्दोमें वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनरूप आत्मज्ञान सहित हो जाओ। जो अपने नहीं है ऐसे परद्रव्योंको जानना बुरा है। इसी प्रकार जो अपना है, ऐसे अपने द्रव्यको जानना अच्छा है। देह प्रमाण अपने आत्मा को स्वसंवेदनप्रत्यक्ष जानना और मन-इन्द्रियों से परद्रव्यों को नहीं जानना ही वास्तविक संयम है। [पृष्ठ-४] [.] श्री देवसेनाचार्य नयचक्र बृहद गाथा ९० में कहते हैं- 'निज द्रव्य के ज्ञापनार्थ ही जिनेन्द्र भगवान के षद्रव्योंका कथन किया है। इसलिए अपने से अतिरिक्त परद्रव्यों को जानने से सम्यग्ज्ञान नहीं होता। [पृष्ठ-४] अनादि से जीवों को ऐसी मिथ्या श्रद्धान है कि परद्रव्यों को जानने से लाभ और सुख की प्राप्ति होती है और उनको नहीं जानने से हानि और दुःख की प्राप्ति होती है। उनको ऐसा सम्यक श्रद्धान नहीं है कि आत्मा को जानने से लाभ और सुख की प्राप्ति होती है। और उसको नहीं जानने से हानि और दुःख की प्राप्ति होती है। ___ पर को ज्ञेय बनाने से परके साथ सम्बन्ध कल्पना उत्पन्न होती है और उससे बंधन होकर दुःखरूप संसारकी उत्पति होती है। अपने को उपयोगरूप पुन: पुन: जानना और परद्रव्यों को उपयोगरूप नहीं जानना ही ध्यान कहलाता है। [ पृष्ठ-संख्या -४-५]
SR No.008263
Book TitleMangal gyan darpan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhnaben J Shah
PublisherDigambar Jain Kundamrut Kahan
Publication Year2005
Total Pages469
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Education, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy