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________________ ૫૩૭ શ્રી નાટક સમયસારના પદો જીવની બાહ્ય અને અંતરંગ અવસ્થા (સવૈયા એકત્રીસા) करमके चक्रमैं फिरत जगवासी जीव, __ है रह्यौ बहिरमुख व्यापत विषमता। अंतर सुमति आई विमल बड़ाई पाई, पुद्गलसौं प्रीति टूटी छूटी माया ममता।। सुद्धनै निवास कीनौ अनुभौ अभ्यास लीनौ, । भ्रमभाव छोड़ि दीनौ भीनौ चित्त समता। अनादि अनंत अविकलप अचल ऐसौ, पद अवलंबि अवलोकै राम रमता।।१४।। (सश-१४-११०) શુદ્ધ આત્મા જ સમ્યગ્દર્શન છે. (સવૈયા એકત્રીસા) जाके परगासमैं न दीसैं राग द्वेष मोह, आस्रव मिटत नहि बंधकौ तरस है। तिहूं काल जामै प्रतिबिंबित अनंतरूप, आपहूं अनंत सत्ता नंततें सरस है।। भावश्रुत ग्यान परवान जो विचारि वस्तु, अनुभौ करै न जहां बानीको परस है। अतुल अखंड अविचल अविनासी धाम, चिदानंद नाम ऐसौ सम्यक दरस है।।१५।। (लश-१५-१११)
SR No.008259
Book TitleKalashamrut Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2005
Total Pages572
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Spiritual, & Discourse
File Size2 MB
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