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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है करा सकता है। घट की तरह, ज्ञान दीपक की तरह अपना तथा अन्य पदार्थों का प्रकाशक है, यह अनुभव से सिद्ध है। अतः यह सिद्ध हुआ कि इन्द्रिय वगैरह पदार्थों के ज्ञान कराने में साधकतम न होने के कारण करण (साधन) नहीं है (इन्द्रियाँ अस्वसंवेदी होने से पदार्थ को जानने में साधकतमा नहीं है क्योकि जो अपने को जानने में असमर्थ है वह पर को भी नहीं जान सकता)।।१४०।।। ___ (श्री न्याय दीपिका , पृष्ठ १४७–१४८) * इन्द्रिय-विषयों निग्रह के , मन एकाग्र लगाय, आत्मा मे स्थित आत्म को, ज्ञानी निज से ध्याय ।।२२।। अर्थ :- मन की एकाग्रता से इन्द्रियों के समूह को वश में करके आत्मवान पुरुष को अपने में ही स्थित आत्मा को आत्मा द्वारा ही ध्याना-चाहिये।।१४१।। (श्री इष्टोपदेश, श्री पूज्यपादस्वामी, गाथा-२२ अर्थ) * ध्याना चाहिये-भाना चाहिए किसको ? आत्मवान (पुरुष को) अर्थात् जिसने इन्द्रिय और मन को रोक लिया है (संयम में रखा है) अथवा जिसने इन्द्रिय और मन की स्वेच्छाचाररूप ( स्वछंद ) प्रवृत्ति का नाश कर दिया है, ऐसा आत्मा, आत्मा को आत्मा से ही अर्थात् स्वसंवेदनरूप प्रत्यक्ष ज्ञान से ही ध्याना चाहिए। क्योंकि उस ज्ञप्ति में अन्य करण ( साधन) का अभाव है। (स्वयम् आत्मा ही ज्ञप्ति का साधन है) वह आत्मा स्व-पर ज्ञप्ति रूप होने से (अर्थात् वह स्वयम् स्व को और पर को भी जानता होने से उसे ( उससे भिन्न) अन्य करण का ( साधन का) अभाव है। इसलिए चिन्ता को छोड़कर स्व-संवित्ति (अर्थात् स्वसंवेदन) द्वारा ही उसको जानना चाहिए। ६६ ___ * मैं नाक से सूंघता हूँ-यह मान्यता मिथ्या है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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