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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
करना चाहिये ।। १३८ । ।
(श्री समयसार जी गाथा २९८, २९९ की टीका )
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ववहारा
* किस अपेक्षा से जीव का सामान्य लक्षण कहा है ? व्यवहार से-व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा है । यहाँ केवलज्ञान-दर्शन के प्रति 'शुद्ध - सद्भूत' शब्द से वाच्य ' अनुपचरित सद्भूत' व्यवहार है, छद्मस्थ के अपूर्ण ज्ञान - दर्शन की अपेक्षा से 'अशुद्ध सद्भूत' शब्द से वाच्य ‘उपचरित सद्भूत' व्यवहार है और कुमति, कुश्रुत, कुअवधिइन तीन ज्ञानों में — उपचरित असद्भूत' व्यवहार है।
शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध अखण्ड केवलज्ञान और केवलदर्शन ( गुणों) ये दोनों जीव का लक्षण है । । ९३९ ।। (श्री वृहद् - द्रव्यसंग्रह गाथा - ६
की टीका में से श्री ब्रह्मदेव सूरि ) * 'प्रमिति प्रमाण का फल ( कार्य ) है' इसमें किसी भी ( वादी या प्रतिवादी) व्यक्ति को विवाद नहीं है। सभी को मान्य है। और वह प्रमिति अज्ञान निवृत्ति स्वरूप है । अत: उसकी उत्पत्ति में जो करण हो उसे अज्ञान विरोधी होना चाहिए। किन्तु इन्द्रियादिक अज्ञान के विरोधी नहीं है; क्योंकि अचेतन (जड़) हैं अत: अज्ञान विरोधी चेतनधर्म-ज्ञान को ही करण मानना युक्त है। लोक में भी अंधकार को दूर करने के लिए उससे विरुद्ध प्रकाश को ही खोजा जाता है, घटादिक को नहीं। क्योंकि घटादिक अज्ञान के विरोधी नहीं है। अंधकार के साथ भी वे रहते हैं इसलिए उनसे अंधकार की निवृत्ति नहीं होती । वह तो प्रकाश से ही होती है।
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दूसरी बात यह है कि इन्द्रित वगैरह अस्वसंवेदी ( अपने को न जानने वाले) होने से पदार्थों का भी ज्ञान नहीं करा सकते हैं। 'जो स्वयम् अपना प्रकाश नहीं कर सकता वह दूसरे का भी प्रकाश नहीं
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* मैं कान से सुनता हूँ- यह मान्यता मिथ्या है*
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