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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आत्मा स्व–पर प्रतिभासस्वरूप है। अर्थात् स्वपरप्रकाशक है । उसमें स्वयम् को जानने पर, पर जानने में आ जाता है, इसलिए जानने के लिए उसे अन्य कारणों की ( साधनों की ) आवश्यकता नहीं रहती । 'स्वसंवेदन में ज्ञप्ति - क्रिया की निष्पत्ति के लिए दूसरा कोई करण अथवा साधकतम कारण नहीं है क्योंकि आत्मा स्वयम् स्व-परज्ञप्ति रूप है। इसलिए कारणांतर की ( अन्य कारण की ) चिन्ता छोड़कर स्व-ज्ञप्ति द्वारा ही आत्मा को जानना चाहिए । । १४२ ।।
(श्री इष्टोपदेश, पं. आशाधरजी टीका, गाथा - २२ ) * उस समय (समाधिकाल में ) आत्मा में आत्मा को ही देखने वाले योगी को बाह्य ( बाहर में ) पदार्थों के होने पर भी परम एकाग्रता के कारण (आत्मा सिवाय ) अन्य कुछ भी नहीं भासता ( मालूम नहीं पड़ता ) । ।१४३ ।।
( श्री इष्टोपदेश में से उद्धृत पृष्ठ ९३, तत्वानुशासन श्लोक १७२ में से )
* विशेषों से अज्ञात रह, निजरूप में लीन होय । सर्व विकल्पातीत वह, छूटे, नहीं बंधा । ।४४।।
अन्वयार्थ :- दूसरे स्थान पर नहीं जाता (अन्यत्र प्रवृत्ति नहीं करता योगी) उसके विशेषों का ( अर्थात् देहादि के विशेषों का सौन्दर्य, असौन्दर्य आदि धर्मों का ) अनभिज्ञ रहता है ( उससे अनजात रहता है) और विशेषों का अजान होने से वह बंधता नहीं है, परन्तु मुक्त होता है।
टीका :- स्वात्म-तत्व में स्थिर हुआ योगी, जब दूसरी जगह नहीं जाता है - प्रवृत्ति नहीं करता ही तब वह स्वात्मा से भिन्न शरीरादि के विशेषों से अर्थात् सौन्दर्य, असौन्दर्यादि धर्मों का अनभिज्ञ (अजान ) रहता
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* मैं जीभ से चाखता हूँ- यह मान्यता मिथ्या है*
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