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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
है अर्थात् वह जानने के लिए अभिमुख ( उत्सुक ) नहीं होता। और उन विशेषों से अज्ञात होने से उनमें उसको राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होता; इसलिए वह कर्मों से नही बंधता है । तब क्या होता है ? विशेष करके (खासकरके) व्रतादि अनुष्ठान (आचरण) करने वालों की अपेक्षा भी कर्मों से ज्यादा छूटता है । । १४४ ।।
(श्री इष्टोपदेश गाथा ४४, अन्वयार्थ टीका )
* किसका, कैसा, कहाँ कहीं, आदि विकल्प विहीन। जाने नहीं निज देह को, योगी आतमलीन ॥४२॥
अन्वयार्थ :- योगपरायण ( ध्यान में लीन ) योगी, यह क्या है ? कैसा है ? किसका है ? कहाँ है ? इत्यादि भेदरूप विकल्प नहीं करता हुआ अपने शरीर को भी नहीं जानता ( उसको अपने शरीर का भी ख्याल नहीं रहता है ) ।।१४५।।
( श्री इष्टोपदेश गाथा ४२ )
* देखत भी नहीं देखता, बोले फिर भी अबोल । चाले फिर भी न चालता, तत्वस्थित अडोल।।४१।।
अन्वयार्थ :- जिसने आत्मतत्व के विषय में स्थिरता प्राप्त की है वह बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता, और देखते हुए भी नहीं देखता ।
टीका :- जिसने आत्मतत्व के विषय में स्थिरता प्राप्त की है अर्थात् जिसने आत्मतत्व को दृढ़ प्रतीति का विषय बनाया है ऐसा योगी संस्कारवश दूसरे के उपरोध से बोलने पर भी वह बोलता ही नहीं है .... क्योंकि उसको बोलने के प्रति अभिमुखपने का अभाव है... सिद्धप्रतिमादि को देखने पर भी देखता ही नहीं है, यही इसका अर्थ है । । १४६ ।।
( श्री इष्टोपदेश गाथा ४१, अन्वयार्थ टीका में से )
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* मैं स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श करता हूँ- यह मान्यता मिथ्या है *
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