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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
* जैसे-जैसे सुलभ ( सहज प्राप्त) इन्द्रिय विषय भी नहीं रुचते वैसेवैसे स्वात्म-संवेदन में उत्तम निजात्मतत्व आता जाता है ।।१४७।। ( श्री इष्टोपदेश गाथा ३८ का अन्वयार्थ )
व्यवहारनय से केवली भगवान सब जानते हैं और देखते हैं; निश्चय से केवलज्ञानी आत्मा को ( स्वयं को ) जानता है और देखता है । । १४८ ।। ( श्री नियमसार जी, श्री कुंदकुंदाचार्य, गाथा - १५९ ) यहाँ, ज्ञानी को स्व-पर स्वरूप का प्रकाशकपना कथंचित् कहा है ।
“ पराश्रितो व्यवहार : ' ( व्यवहार पराश्रित है ) ' ऐसा ( शास्त्र का ) वचन होने से, व्यवहारनय से वे भगवान परमेश्वर परमभट्टारक आत्मगुणों का घात करने वाले घाति कर्मों के नाश द्वारा प्राप्त सकल- विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन द्वारा त्रिलोकवर्ती तथा त्रिकालवर्ती सचराचर द्रव्यगुणपर्यायों को एक समय में जानते हैं और देखते हैं । शुद्ध निश्चय से परमेश्वर महादेवाधिदेव सर्वज्ञवीतराग को, परद्रव्य के ग्राहकत्व, दर्शकत्व, ज्ञायकत्व आदि के विविध विकल्पों की सेना की उत्पत्ति मूलध्यान में अभावरूप होने से ( ? ) वे भगवान त्रिकाल - निरूपाधि, निरवधि ( अमर्यादित ), नित्यशुद्ध ऐसे सहजज्ञान और सहजदर्शन द्वारा निज कारणपरमात्मा को, स्वयं कार्यपरमात्मा होने पर भी, जानते हैं और देखते हैं। किस प्रकार ? इस ज्ञान का धर्म तो दीपक की भाँति स्व-पर प्रकाशकपना है। घटादि की प्रमिति से प्रकाश-दीपक (कथंचित् ) भिन्न होने पर भी स्वयं प्रकाशस्वरूप होने से स्व और पर को प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योतिस्वरूप होने से व्यवहार से त्रिलोक और त्रिकालरूप पर को तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आत्मा को (स्वयं को ) प्रकाशित करता है।
अब “ स्वाश्रितो निश्चयः ( निश्चय स्वाश्रित है ) " ऐसा ( शास्त्र का ) वचन होने से, (ज्ञान को ) सतत निरुपराग निरंजन स्वभाव में लीनता के
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* मैं मन से छह द्रव्य को जानता हूँ- यह मान्यता मिथ्या है* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com