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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
कि प्रकाश से प्रकाशित वस्तु को तो देखना किन्तु प्रकाशक को नहीं देखना। ऐसे ज्ञायक-विषय में अज्ञानियों को यहाँ दुर्बुद्विविकार-ग्रसित बुद्धि वाले बतलाया है। पिछले पद्य में दीपक और उसके उद्योत की बात को लेकर विषय को स्पष्ट किया गया है, यहाँ उद्योत और उसके द्वारा घोतित (द्योतनीय) पदार्थ-की बात को लेकर उसी विषय को स्पष्ट किया गया है। द्योतक, द्योत और द्योत्य का जैसा सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का है। एक के जानने से दूसरा जाना जाता है। जिसे एक को जानकर दूसरे का बोध नहीं होता वही सचमुच दुर्बुद्धि है।।११७।।
(श्री योगसार प्राभूत, श्री अमितगति आचार्य,
निर्जरा अधिकार गाथा ३९) * ज्ञेय के लक्ष्य-द्वारा आत्मा के परमस्वरूप को जानकर और लक्ष्यरूप से व्यावृत होकर शुद्ध स्वरूप का ध्यान करने वाले के कर्मों का नाश होता है। ___ व्याख्या :- जो लोग ज्ञेय को जानने में प्रवृत्त होते हुए भी ज्ञायक को जानने में अपने को असमर्थ बतलाते हैं उन्हें यहाँ ज्ञेय के लक्ष्य से आत्मा के उत्कृष्ट स्वरूप को जानने की बात कही गयी है और साथ ही यह सुझाया गया है कि इस तरह शुद्ध स्वरूप के सामने आने पर ज्ञेय के लक्ष्य को छोड़कर अपने उस शुद्ध स्वरूप का ध्यान करो, इससे कर्मों की निर्जरा होती है।
द्रष्टांत :- जिस प्रकार कड़छी-चम्मच से भोजन ग्रहण करके उसे छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार गोचर के–ज्ञेय लक्ष्य द्वारा आत्मा को जानकर वह छोड़ दिया जाता है।
व्याख्या :- यहाँ कड़छी-चम्मच के उदाहरण द्वारा पूर्व पद्य में
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*इन्द्रियज्ञान में स्व-पर का विवेक नहीं होता है
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