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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
वर्णिय विषय को स्पष्ट किया गया है। कड़छी-चम्मच का उपयोग जिस प्रकार भोजन के ग्रहण करने में किया जाता है उसी प्रकार आत्मा के जानने मे ज्ञेय के लक्ष्य का उपयोग किया जाता है। आत्मा का ग्रहण (जानना) हो जाने पर ज्ञेय का लक्ष्य छोड़ दिया जाता है और अपने ग्रहीत स्वरूप का ध्यान किया जाता है।।११८ ।।
(श्री योगसार प्राभृत अमितगति आचार्य,
निर्जरा अधिकार गाथा ४०-४१) * ज्ञान के ज्ञात होने पर ज्ञानी जाना जाता है 'चूंकि ज्ञान और ज्ञानी में सर्वथा भेद विद्यमान नहीं है इसलिये ज्ञान के ज्ञात होने पर वस्तुतः ज्ञानी ज्ञात होता है-जाना जाता है।'
व्याख्या :- ज्ञान और ज्ञानी एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं हैं। ज्ञान गुण है, ज्ञानी गुणी है, गुण-गुणी में सर्वथा भेद नहीं होता; दोनों का तादात्म्य सम्बन्ध होता है और इसलिये वास्तव में ज्ञान के मालूम पड़ने पर ज्ञानी (आत्मा) का होना जानने में आ जाता है। यहाँ सर्वथा भेद न होने की जो बात कही गयी है वह इस बात को सूचित करती है कि दोनों में कथंचित् भेद है, जो कि संज्ञा (नाम) संख्या, लक्षण, तथा प्रयोजनादि के भेद की दृष्टि से हुआ करता है।।११९ ।।
(श्री योगसार प्राभृत अमितगति आचार्य निर्जरा अधिकार गाथा-३५)
* जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसके द्वारा ज्ञानी (ज्ञाता) कैसे नहीं जाना जाता ? जिसके द्वारा उद्योत (प्रकाश) देखा जाता है उसके द्वारा क्या दीपक नहीं देखा जाता ?-देखा ही जाता है।
व्याख्या :- जिस प्रकार दीपक के प्रकाश को देखने वाला दीपक को भी देखता है उसी प्रकार जो ज्ञेयरूप पदार्थ को जानता है वह उसके
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*इन्द्रियज्ञान बढ़ा अर्थात ज्ञेय बढ़ा*
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