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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
करते हैं :- यदि चेतयिता पुद्गलादि का हो तो क्या हो इसका प्रथम विचार करते हैं:- ‘जिसका जो होता है, जैसे आत्मा का ज्ञान होने से ज्ञान वह आत्मा ही है;'- ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवित (-विद्यमान) होने से, चेतयिता यदि पुदगलादिका हो तो चेतयिता वह पुद्गलादि का होवे (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ही होना चाहिये, पुद्गलादि से भिन्न द्रव्य नहीं होना चाहिये ); ऐसा होने पर, चेतयिता के स्वद्रव्य का उच्छेद हो जायेगा। किन्तु द्रव्य का उच्छेद तो नहीं होता क्योंकि एक द्रव्य का अन्य द्रव्यरूप में संक्रमण होने का तो पहले ही निषेध कर दिया है। इसलिये ( यह सिद्ध हुआ कि ) चेतयिता पुद्गलादि का नहीं है। ( अब आगे और विचार करते हैं:-) यदि चेतयिता पुद्गलादिका नहीं है तो किसका हैं ? चेतयिता का ही है। इस चेतयिता से भिन्न ऐसा दूसरा कौन सा चेतयिता है कि जिसका ( यह) चेतयिता है ? (इस) चेतयिता से भिन्न अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश ही हैं। यहाँ स्व-स्वामिरूप अंशों के व्यवहार से क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है। तब फिर ज्ञायक किसी का नहीं है। ज्ञायक ज्ञायक ही है-यह निश्चय है।।११६ ।।
(श्री समयसार जी गाथा–३५६ की टीका में से)
* वेद्य को जानना और वेदक को नहीं जानना वो आश्चर्यकारी है। ____ शब्दार्ध :- दुर्बुद्धि वेद्य को तो जानते हैं वेदक को क्यों नहीं जानते ? प्रकाश्य को तो देखते हैं किन्तु प्रकाशक को नहीं देखते, यह कैसा आश्चर्य है ?
व्याख्या :- निःसन्देह ज्ञेय को जानना और ज्ञायक को- ज्ञान या ज्ञानी को-न जानना एक आश्चर्य की बात है, उसी प्रकार जिस प्रकार
* मैं पर में तन्मय होऊँ तो पर को जानें*
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