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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
शब्दार्थ सहित विशेषार्थ :- यह जीव जानने रूप विकल्प के द्वारा धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को और जीव अजीव को और अलोकाकाश व लोकाकाश आदि सर्व ही ज्ञेय पदार्थों को अपना कर लेता है अर्थात् अपने आत्मा से उनका सम्बन्ध कर लेता है। तात्पर्य यह है कि घट के आकार परिणमन करने वाले ज्ञान को उपचार से घट कहते हैं वैसे ही धर्मास्तिकाय आदि जानने योग्य पदार्थों के विषय में यह धर्म है यह अधर्म है इत्यादी जो जाननरूप विकल्प है उसको भी उपचार से धर्मास्तिकाय आदि कहते हैं। क्यों ऐसा कहते हैं ? इसका उत्तर यह है कि उस जाननरूप विकल्प का विषय धर्मास्तिकायआदिक है। जब यह आत्मा स्वस्थ भाव अर्थात् अपने आत्मा में तिष्ठनेरूप समाधि भाव से गिरकर के यह विकल्प करता है कि यह धर्मास्तिकाय है तथा यह अधर्मास्तिकाय है इत्यादि तब इस तरह के विकल्प करते हुये धर्मास्तिकाय आदि ही उपचार से किये गए ऐसा कहने में आता है। अर्थात् उस समय आत्मा का सम्बन्ध ज्ञेय पदार्थों से हो रहा है।
भावार्थ :- जब यह आत्मा अपनी आत्मिक परिणति में तल्लीन रहता है तब आत्मा का ही अनुभव करता हुआ निर्विकल्प रहता है पर जब आत्मा से भिन्न धर्म, अधर्म, आकाश, काल व पुद्गल इन पदार्थों के जानने में अपना विकल्प का सम्बन्ध करता है तब स्वस्थ भाव से गिर करके उस जाननरूप विकल्प के अध्यवसाय में परिणमन करता है जिससे ऐसा कहा जाता है कि उसने परज्ञेय-पदार्थों से अपना सम्बन्ध कर लिया। अर्थात् यह आत्मा पररूप को गया । । १०६ ।।
( श्री समयसार जी, श्री जयसेनाचार्य टीका, ब्रं. शीतल प्रसाद जी, गाथा २८६, श्री अमृतचंद्राचार्य में गाथा २६९ ) * कभी ज्ञेय पदार्थों में जाननरूप अध्यवसान करता है कि यह धर्मास्तिकाय इत्यादि हैं इन अध्यवसानों को विकल्परहित शुद्धात्मा से
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'जानने के लोभ में सारा संसार है*
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