________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
भिन्न नहीं जानता है । इस तरह इन अध्यवसानों को शुद्धात्मा से भिन्न अनुभव नहीं करता हुआ हिंसा आदि के अध्यवसान सम्बन्धी विकल्प के साथ अपने आत्मा का अभेदरूप से श्रद्धान करता है, जानता है तथा अनुभव करता है तब मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी और मिथ्याचारित्री हो जाता है। इससे उसके कर्मों का बंध होता है ।। १०७ ।।
66
( श्री समयसार जी, श्री जयसेनाचार्य की टीका, ब्रं. शीतल प्रसाद जी गाथा २८७, श्री अमृतचंद्राचार्य गाथा २७० ) * यह जो अध्यवसान हैं वे “ मैं पर का हनन करता हूँ” इस प्रकार के है, “मैं नारक हूँ,” इस प्रकार के हैं तथा “ मैं परद्रव्य को जानता हूँ” इस प्रकार के हैं। वे, जब तक आत्मा का और रागादि का, आत्मा का और नारकादि कर्मोदयजनित भावों का तथा आत्मा का और ज्ञेयरूप अन्य द्रव्यों का भेद न जाना हो, तब तक रहते हैं। वे भेदज्ञान के अभाव के कारण मिथ्याज्ञानरूप हैं। मिथ्यादर्शनरूप हैं और मिथ्याचारित्ररूप हैं; यों तीन प्रकार के होते हैं। वे अध्यवसान जिनके नहीं है वे मुनिकुंजर हैं । वे आत्मा को सम्यक् जानते हैं, सम्यक् श्रद्धा करते है और सम्यक् आचरण करते हैं, इसलिये अज्ञान के अभाव से सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप होते हुये कर्मों से लिप्त नहीं होते । । १०८ ।। (श्री समयसार जी गाथा २७० का भावार्थ )
* रागद्वेषसुखदुःखादि अवस्था पुद्गल कर्म के उदय का स्वाद है; इसलिये वह शीत-उष्णता की भाँति, पुद्गलकर्म से अभिन्न है और आत्मा से अत्यन्त भिन्न है। अज्ञान के कारण आत्मा को उसका भेदज्ञान नहीं होने से वह यह जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है; क्योंकि ज्ञान की स्वच्छता के कारण रागद्वेषादि का स्वाद, शीत-उष्णता की भाँति ज्ञान में प्रतिबिम्बित होने पर, मानों ज्ञान ही रागद्वेष हो गया हो इस प्रकार अज्ञानी को भासित होता है। इसलिये वह यह मानता है कि मैं रागी हूँ, मैं द्वेषी हूँ,
५९
* मैं पर को नहीं जानता हूँ*
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com