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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
न रखकर, धर्मादि के विकल्प में एकाकार हो जाता है वह अपने को धर्मादिद्रव्य रूप मानता है। __ इस प्रकार, अज्ञानरूप चैतन्य परिणाम-अपने को धर्मादिद्रव्यरूप मानता है इसलिये अज्ञानी जीव उस अज्ञानरूप सोपाधिक चैतन्य परिणाम का कर्ता होता है और वह अज्ञानरूप भाव उसका कर्म होता है।।१०३।।
(श्री समयसार जी गाथा ९५ भावार्थ
पं. श्री जयचंद जी छावड़ा)
* इसी प्रकार यह आत्मा भी अज्ञान के कारण ज्ञेयज्ञायक रूप पर को और अपने को एक करता हुआ, “मैं परद्रव्य हूँ" ऐसे अध्यास के कारण मन के विषयभूत किये गये धर्म, अधर्म , आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीव के द्वारा ( अपनी) शुद्ध चैतन्यधातु रुकी होने से तथा इन्द्रियों के विषयरूप किये गये रूपी पदार्थों के द्वारा (अपना) केवल बोध (ज्ञान) ढंका हुआ होने से और मृतक शरीर के द्वारा परम अमृतरूप विज्ञानघन ( स्वयं) मूर्छित हुआ होने से उस प्रकार के भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है।।१०४।।।
(श्री समयसार जी गाथा ९६ की टीका में से)
* यह आत्मा अज्ञान के कारण, अचेतन कर्मरूप भावक के क्रोधादि भाव्य को चेतन भावक के साथ एकरूप मानता है; और वह जड़ ज्ञेयरूप धर्मादिद्रव्यों को भी ज्ञायक के साथ एकरूप मानता है। इसलिये वह सविकार और सोपाधिक चैतन्यपरिणाम का कर्त्ता होता है।।१०५ ।।
( श्री समयसार जी गाथा-९६ का भावार्थ) * सामान्यार्थ :- यह जीव अध्यवसान के द्वारा धर्म, अधर्म, जीव, अजीव, लोक, अलोक अदि सर्व ही ज्ञेय पदार्थों को अपना मान लेता है।
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*इन्द्रियज्ञान में भेदज्ञान करने की ताकत नहीं है
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