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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
विकल्प करता है कि धर्मास्तिकाय यह है तब यह अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को भूल जाता है। तब इस विकल्प को करते हुये मैं धर्मास्तिकायरूप हूँ इत्यादि विकल्प उस जीव के उपचार से सिद्ध होता है ऐसा प्रयोजन है इससे यह सिद्ध हुआ कि शुद्धात्मा के अनुभव के बिना जो अज्ञान भाव है वह कर्मों के कर्त्तापने का कारण है।
भावार्थ :- जब शुद्धात्मस्वरूप के अनुभव में तन्मय उपयोग होता है तब इसके कर्मों का करने वाला अज्ञान भाव नहीं है। जब इसके विपरीत होता है तब इसका उपयोग अज्ञान भाव के कारण कर्मों का बांधने वाला होता है।।१०१।। (श्री समयसार जी, टीका श्री जयसेनाचार्य, ब्र. शीतल प्रसाद जी,
___ गाथा–१०३ , अमृतचंद्राचार्य गाथा ९५ ) * वास्तव में यह सामान्य रूप से अज्ञानरूप जो मिथ्यादर्शन-अज्ञानअविरति रूप तीन प्रकार का सविकार चैतन्य परिणाम है वह, पर के
और अपने अविशेष दर्शन से, अविशेष ज्ञान से, और अविशेष रति (लीनता) से स्व–पर के समस्त भेद को छिपाकर ज्ञेयज्ञायक भाव को प्राप्त ऐसे चेतन और अचेतन का सामान्य अधिकरण से अनुभव करने से, मैं धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुद्गल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ ऐसा अपना विकल्प उत्पन्न करता है; इसलिए में धर्म हूँ, मैं अधर्म हूँ, मैं आकाश हूँ, मैं काल हूँ, मैं पुदगल हूँ, मैं अन्य जीव हूँ ऐसी भ्रान्ति के कारण जो सोपाधिक (उपाधियुक्त) है ऐसे चैतन्य परिणाम को परिणमित होता हुआ यह आत्मा उस सोपाधिक चैतन्य परिणामरूप अपने भाव का कर्ता होता है।।१०२।।
( श्री समयसार जी गाथा ९५ टीका, श्री अमृतचंद्राचार्य) * धर्मादि के विकल्प के समय जो, स्वयं शुद्धचैतन्य मात्र होने का भान
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* “ मैं पर को जानता हूँ"- यहाँ से संसार की शुरूआत होती है*
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