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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
इसलिये अव्यक्त है । । १०० ।।
( श्री समयसार जी गाथा ४९ की टीका में से, अव्यक्त का बोल नं. १ )
सामान्यार्थ :- मिथ्यादर्शनादि तीन प्रकार उपयोगधारी आत्मा ऐसा मिथ्या विकल्प करता है कि धर्मास्तिकायरूप मैं हूँ या अधर्मास्तिकायरूप मैं हूँ, तब यह आत्मा अपने उस आत्मभावमयी उपयोग का कर्त्ता होता है।
शब्दार्थ सहित विशेषार्थ :- ( एसुवओगो) यह उपयोगवान आत्मा सामान्यपने अज्ञानरूप एक तरह का होने पर भी ( तिविहो ) विशेष करके मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र रूप से तीन प्रकार का होता हुआ परद्रव्य और आत्मा के ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध को एकरूप निश्चय करने से, एकरूप जानने से व एकरूप परिणमन करने से उनके भेदज्ञान के न होने के कारण जानने योग्य पदार्थ और जानने वाला आत्मा इन दोनों के भेद को न जानता हुआ ( धम्मादी ) धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय रूप मैं हूँ इत्यादि ( अस्स) अपने आत्मा का असत् - मिथ्या ( वियप्पं ) विकल्परूप अपने परिणाम को ( करेदि ) पैदा करता है तब (सो) वही आत्मा निर्मल आत्मा के अनुभव से रहित
होता हुआ ( तस्स उवओगस्स अत्तभावस्स) अपने ही इस मिथ्या
विकल्परूप परिणाम का ( कत्ता ) कर्त्ता अशुद्ध निश्चय से ( होदि) होता है। यहाँ शिष्य ने प्रश्न किया है कि मैं धर्मास्तिकायरूप हूँ, ऐसा कोई नहीं कहता है तब ऐसा कहना कैसे घट सकता है। उसका समाधान आचार्य करते हैं कि यह धर्मास्तिकाय हैं ऐसा जो जाननेरूप विकल्प मन में उठता है उसको भी उपचार से धर्मास्तिकाय कहते हैं जैसे घट के द्वारा घटाकार परिणतिरूप ज्ञान कहा जाता है, उसी तरह जानना, क्योंकि ज्ञान ज्ञेय के आकार परिणमन करता है। जब यह आत्मा ज्ञेयतत्व के विचार के समय ऐसा
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* जिस बात से अनुभव होवे वही बात सत्य है*
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