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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है (२) अपने स्वभाव की दृष्टि से देखा जाये तो उसके क्षायोपशमिक भाव का भी अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन से भी रस नहीं चखता इसलिए अरस है। (३) समस्त विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदनपरिणामरूप उसका स्वभाव होने से वह केवल एक रसवेदना परिणाम को पाकर रस नहीं चखता इसलिए अरस है।।९५ ।। (श्री समयसार जी गाथा-४९ की टीका में से) * (१) परमार्थ से पुद्गलद्रव्य का स्वामीपना भी उसे नहीं होने से वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी रूप नहीं देखता इसलिए अरूप है। (२) अपने स्वभाव की दृष्टि से देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भाव का भी उसे अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी रूप नहीं देखता इसलिए अरूप है। (३) सकल विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन परिणामरूप उसका स्वभाव होने से वह केवल एक रूपवेदना परिणाम को प्राप्त होकर रूप नहीं देखता इसलिए अरूप है।।९६ ।। (श्री समयसार जी गाथा ४९ की टीका में से ___ बोल नं. ३,४,५, श्री अमृतचंद्राचार्य) * (१) परमार्थ से पुद्गलद्रव्य का स्वामीपना भी उसे नहीं होने से वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी गंध नहीं सूंघता इसलिए अगंध है। (२) अपने स्वभाव की दृष्टि से देखने में आवे तो क्षायोपशमिक भाव का भी उसे अभाव होने से वह भावेन्द्रिय के आलम्बन द्वारा भी गंध नहीं सूंघता इसलिए अगंध है। (३) सकल विषयों के विशेषों में साधारण ऐसे एक ही संवेदन *ज्ञेय की पकड़ कहो या ज्ञेयाकार में अटक-एक ही बात है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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