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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है ज्ञेयज्ञायक भावमात्र से उत्पन्न परद्रव्यों के साथ परस्पर मिलन होने पर भी, प्रगट स्वाद में आते हुये स्वभाव के कारण धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवों के प्रति मैं निर्मम हूँ; क्योंकि सदा ही अपने एकत्व में प्राप्त होने से समय (आत्मपदार्थ अथवा प्रत्येक पदार्थ) ज्यों का त्यों ही स्थित रहता है; (अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता )। इस प्रकार ज्ञेय भावों से भेदज्ञान हुआ।।९२।। (श्री समयसार जी, गाथा ३७ टीका श्री अमृतचंद्राचार्य जी) * इस प्रकार पूर्वोक्त रूप से भावकभाव और ज्ञेयभावों से भेदज्ञान होने पर जब सर्व अन्य भावों से भिन्नता हुई तब यह उपयोग स्वयं ही अपने एक आत्मा को ही धारण करता हुआ, जिनका परमार्थ प्रगट हुआ है ऐसे दर्शनज्ञानचारित्र से जिसने परिणति की है ऐसा अपने आत्मारूपी बाग (क्रीड़ावन) में प्रवृत्ति करता है अन्यत्र नहीं जाता।।९३।। (श्री समयसार जी, कलश-३१ श्लोकार्थ श्री अमृतचंद्राचार्य जी) * इस प्रकार सबसे भिन्न ऐसे स्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवंत हूँ। इस प्रकार-प्रतापवंत वर्तते हुवे ऐसे मुझे , यद्यपि ( मुझसे) बाह्य अनेक प्रकार की स्वरूप-सम्पदा के द्वारा समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं तथापि, कोई भी परद्रव्य परमाणु मात्र भी मुझरूप भासते नहीं कि जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूप से मेरे साथ एक होकर पुनः मोह उत्पन्न करें; क्योंकि निजरस से ही मोह को मूल से उखाड़करपुनः अंकुरित न हो इस प्रकार नाश करके, महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है।।९४।। (श्री समयसार जी, गाथा ३८ टीका , श्री अमृतचंद्राचार्य जी) * (१) परमार्थ से पुदगलद्रव्य का स्वामीपना भी उसके नहीं है इसलिये वह द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन से भी रस नहीं चखता इसलिये अरस है। ४४ *पर को जाने ऐसा ज्ञायक का स्वरूप नहीं है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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