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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है यहाँ परद्रव्य से ममत्व रहितपना विशेषण बतलाया है।।९०।। (श्री समयसार जी, टीका श्री जयसेनाचार्य, ब्र. शीतल प्रसाद कृत गाथा-४२ (३७) का शब्दार्थ सहित विशेषार्थ) * परद्रव्यों को मैं जानता हूँ ऐसा भी जो अहंकार है सो त्यागने योग्य है। सर्व परद्रव्यों से भी मोह करना स्वसंवेदन ज्ञान में बाधक है इस कारण ऐसी ममता भी त्यागने योग्य है। निर्विकल्प होकर निज शुद्ध स्वरूप का ध्याना ही कार्यकारी है। यद्यपि आत्मा के ज्ञान स्वभाव में ज्ञेयों का प्रतिभासपना होना उचित ही है तथापि उन ज्ञेयों के प्रति जो ममत्व भाव सो स्वरूप समाधि में निषेधने योग्य है। मैं ज्ञाता हूँ परद्रव्य ज्ञेय है यह विकल्प योग्य नहीं है।।९१।। (श्री समयसार जी टीका श्री जयसेनाचार्य कृत, ब्र. शीतल प्रसाद जी, भावार्थ ४२ गाथा (३७) ___ गाथा श्री अमृतचंद्राचार्य जी) * अपने निजरस से जो प्रगट हुई है, जिसका विस्तार अनिवार्य है तथा समस्त पदार्थों को ग्रसित करने का जिसका स्वभाव है ऐसी प्रचण्ड चिन्मात्रशक्ति के द्वारा ग्रासीभूत किये जाने से, मानों अत्यन्त अन्तर्मग्न हो रहे हों-ज्ञान में तदाकार होकर डूब रहे हों इस प्रकार आत्मा में प्रकाशमान यह धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीव-ये समस्त परद्रव्य मेरे सम्बन्धी नहीं हैं; क्योंकि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावत्व से परमार्थतः अंतरंगतत्व तो मैं हूँ और वे परद्रव्य मेरे स्वभाव से भिन्न स्वभाव वाले होने से परमार्थतः बाह्यतत्वरूपता को छोड़ने के लिये असमर्थ हैं ( क्योंकि वे अपने स्वभाव का अभाव करके ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते)। और यहाँ स्वयमेव , (चैतन्य में) नित्य उपयुक्त परमार्थ से एक, अनाकुल आत्मा का अनुभव करता हुआ भगवान आत्मा ही जानता है कि मैं प्रगट निश्चय से एक ही हूँ, इसलिये ४३ *ज्ञायक नहीं है अन्य का* Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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