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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
के ज्ञानगुण की पर्याय, उनसे (विभक्तः भवन्) भिन्न है ज्ञानमात्र सत्ता ऐसा अनुभव करता हुआ । । ८८ ।।
( श्री समयसार जी कलश, टीका कलश २५८, पांडे श्री राजमल जी )
* जिसके लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं है अर्थात् ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है, इस प्रकार आत्मा के बाह्य पदार्थों का आलम्बन वाला ज्ञान नहीं है, ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है ।। ८९ ।।
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( श्री प्रवचनसार जी, गाथा १७२, अलिंगग्रहण बोल नं. ७ श्री अमृतचंद्राचार्य )
* यह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय,
आकाशास्तिकाय,
पुद्गलास्तिकाय, तथा काल द्रव्य व अन्य जीवद्रव्य को आदि लेकर जितने ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य पदार्थ हैं वे सब मेरे सम्बन्धी नहीं है। मैं विशुद्ध ज्ञानदर्शन उपयोग स्वरूप ही हूँ क्योंकि आत्मा का लक्षण ज्ञानदर्शन उपयोगमय है । इन दोनों को अभेद से उपयोग कहते हैं। अभेद से जो उपयोग है सो ही आत्मा है क्योंकि आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में उपयोग है, मैं आत्मा हूँ, अपने को इस प्रकार जानता हूँ कि टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावरूप मैं हूँ तथा एक अकेला हूँ ऐसा ज्ञानी जानता है। इस कारण उन धर्मादि द्रव्यों के प्रति मैं ममत्व रहित हूँ, यद्यपि दहीं और शक्कर की शिखरणी के समान व्यवहार नय से ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध की अपेक्षा से परद्रव्यों के साथ मेरी एकता है तो भी शुद्ध निश्चयनय से यह परद्रव्य मेरा स्वरूप नहीं है। क्योंकि मैं शुद्धात्मभावना स्वरूप हूँ, इस कारण परद्रव्यों से ममत्व रहित हूँ। ऐसा शुद्धात्मा के जानने वाले पुरुष कहते हैं । यहाँ यह तात्पर्य है कि पहले स्वसंवेदन ज्ञान को ही प्रत्याख्यान कहा था उसी का
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मैं जाननेवाला और लोकालोक ज्ञेय
ऐसा कितने कहा है ? *
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