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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
स्याद्वादी समाधान करता है कि ज्ञान मात्र जीववस्तु समस्त ज्ञेयशक्ति को जानती है ऐसा सहज है। परन्तु अपनी ज्ञानशक्ति से अस्तिरूप है ऐसा कहते हैं-“ पशुः नश्यति एव” (पशुः) एकान्तवादी (नश्यति) वस्तु की सत्ता को साधने से भ्रष्ट है। (एव) निश्चय से। कैसा है एकान्तवादी ? “बहिः वस्तुषु नित्यं विश्रान्तः” (बहि: वस्तुषु ) समस्त ज्ञेय वस्तु की अनेक शक्ति की आकृतिरूप परिणमी है ज्ञान की पर्याय, उसमें (नित्यं विश्रान्तः) सदा विश्रान्त है अर्थात पर्यायमात्र को जानता है ज्ञानवस्तु, ऐसा है निश्चय जिसका ऐसा है। किस कारण से ऐसा है ? " परभावभावकलनात्” (परभाव) ज्ञेय की शक्ति की आकृतिरूप है ज्ञान की पर्याय उसमें (भावकलनात् ) अवधार किया है ज्ञानवस्तु का अस्तिपना ऐसे झूठे अभिप्राय के कारण। और कैसा है एकान्तवादी ? " स्वभावमहिमनि एकान्तनिश्चेतनः” (स्वभाव) जीव की ज्ञानमात्र निजशक्ति के ( महिमनि) अनादिनिधन शाश्वत प्रताप में (एकान्तनिश्चेतनः) एकान्त निश्चेतन है अर्थात् उससे सर्वथा शून्य है। भावार्थ इस प्रकार है कि स्वरूपसत्ता को नहीं मानता है ऐसा है एकान्तवादी, उसके प्रति स्याद्वादी समाधान करता है- “तु स्याद्वादी नाशं न एति” (तु) एकात्ववादी मानता है उस प्रकार नहीं है, स्याद्वादी मानता है उस प्रकार है। ( स्याद्वादी) अनेकान्तवादी ( नाश) विनाश को (न एति) नहीं प्राप्त होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि ज्ञानमात्र वस्तु की सत्ता को साध सकता है। कैसा है अनेकान्तवादी जीव ? “सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः” ( सहज) स्वभाव शक्तिमात्र ऐसा जो अस्तित्व उस सम्बन्धी ( स्पष्टीकृत) दृढ़ किया है (प्रत्ययः) अनुभव जिसने ऐसा है। और कैसा है ? “सर्वस्मात् नियतस्वभावभवनज्ञानात् विभक्तः भवन्” (सर्वस्मात् ) जितने हैं (नियतस्वभाव) अपनी अपनी शक्ति विराजमान ऐसे जो ज्ञेयरूप जीवादि पदार्थ उनकी (भवन) सत्ता की आकृतिरूप परिणमी है ऐसी (ज्ञानात् ) जीव
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* मैं पर को मारता हूँ, मैं पर को जानता हूँ-समकक्षी पाप है *
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