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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है आता है। जैसे श्रेणी चढ़ते समय ज्ञान की जो निर्विकल्प अवस्था है उस निर्विकल्प अवस्था में ध्यान की अवस्था सम्पन्न श्रुतज्ञान अथवा इस श्रुतज्ञान से पूर्व का मतिज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, इसी प्रकार जो सम्यग्दृष्टि जीव चौथे गुण स्थान से लेकर सातवें गुण स्थान वर्ती हैं उसका मतिश्रुतज्ञानात्मक भावमन भी स्वानुभूति के समय में विशेष दशा सम्पन्न होने से श्रेणी जैसा तो नहीं है, परन्तु उसकी भूमिका के योग्य निर्विकल्प तो होता है। इसलिये इस मतिश्रुतज्ञानात्मक भावमन को स्वानुभूति के समय में प्रत्यक्ष मानने में आता है वहाँ यही कारण है कि- मतिश्रुतज्ञान बिना केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। परन्तु अवधि मनःपर्ययज्ञान बिना हो सकती है। भावार्ध :- मतिश्रुतज्ञान को स्वानुभूति के समय में प्रत्यक्ष कहा है यह ठीक कहा है, क्योंकि-आत्मसिद्धि के लिये मतिश्रुत यह दो ज्ञान ही आवश्यक ज्ञान हैं, कारण कि अवधि तथा मनः पर्ययज्ञान बिना तो मोक्ष हो सकता है परन्तु मतिश्रुतज्ञान बिना कभी भी मोक्ष नहीं हो सकता है।।८७।। (श्री पंचाध्यायी, पूर्वार्ध गाथा ७१७, ७१८, ७१९) * खण्डान्वय सहित अर्थ :- भावार्थ इस प्रकार है कि कोई एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है कि वस्तु को पर्यायमात्र मानता है, द्रव्यरूप नहीं मानता है, इसलिए जितनी समस्त ज्ञेय वस्तुओं के जितने हैं शक्तिरूप स्वभाव उनको जानता है ज्ञान। जानता हुआ उनकी आकृतिरूप परिणमता है। इसलिए ज्ञेय की शक्ति की आकृतिरूप हैं ज्ञान की पर्याय, उनसे ज्ञानवस्तु की सत्ता को मानता है। उनसे भिन्न है अपनी शक्ति की सत्तामात्र उसे नहीं मानता है। ऐसा है एकान्तवादी। उसके प्रति ४० * इन्द्रियज्ञान के निषेध बिना उपयोग अंतर्मुख नहीं होता है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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