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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
भावार्थ:- इसलिये पूर्वोक्त कथन निर्दोष सिद्ध होता है कि स्वानुभूति के समय में अतीन्द्रिय आत्मा को प्रत्यक्ष जानने के लिये मात्र मन ही उपयोगी है तथा स्वानुभूति तत्परतारूप विशिष्ट अवस्था में यह मन ही ज्ञाता और ज्ञेय के विकल्पों से रहित होकर स्वयं ही ज्ञानमय हो जाता है इसलिये इस ज्ञान द्वारा ही सम्यग्दृष्टि जीव के अतीन्द्रिय आत्मा को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होना युक्तिसंगत है।।८६ ।।
(श्री पंचाध्यायी, पूर्वार्ध गाथा ७१५-७१६ अर्थ और भावार्थ)
* अन्वयार्थ :- निश्चय से सूत्र में जो मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है तथा मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान होता है, ऐसा जो कथन है वह कथन असिद्ध नहीं है।
अन्वयार्थ :- सारांश यह है कि निश्चय से भावमन, ज्ञान विशिष्ट होता हुआ स्वयं ही अमूर्त है इसलिये इस भावमन द्वारा होने वाला यह आत्मदर्शन अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष क्यों नहीं होवे ?
भावार्थ :- जो कदाचित ऐसा कहने में आये कि–'मति-श्रुतात्मक भावमन स्वानुभूति के समय में प्रत्यक्ष होता है तो सूत्र में जो मतिज्ञान को इन्द्रिय और अतीन्द्रिय से उत्पन्न होने से तथा श्रुतज्ञान के मतिज्ञानपूर्वक उत्पन्न होने से परोक्ष कहा है यह कथन असिद्ध हो जायेगा' तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि मतिश्रुतात्मक इस भावमन को स्वानुभूति के समय में प्रत्यक्ष कहने का ऐसा अभिप्राय है कि स्वानुभूति के समय में यह मतिश्रुत ज्ञानात्मक भावमनरूप विशिष्ट दशा सम्पन्न हो जाता है। इसलिये भावमन द्वारा होने वाला अमूर्त आत्मदर्शन अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष क्यों ना हो ? अर्थात् अवश्य हो।
सारांश यह है कि-स्वात्मरस में निमग्न होने वाला भावमन स्वयं ही अमूर्त होकर स्वानुभूति के समय में आत्म-प्रत्यक्ष करने वाला कहने में
*इन्द्रियज्ञान पर की प्रसिद्धि करता हैं
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