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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जितने प्रथम के यह मतिज्ञान-श्रुतज्ञान ये दो रहते हैं उतने वह सब साक्षात् प्रत्यक्ष की माफक प्रत्यक्ष हैं, अन्य अर्थात्-परोक्ष नहीं है।
भावार्थ :- तथा इन मति और श्रुतज्ञानों में भी इतनी विशेषता है कि-जिस समय इन दोनों में से किसी एक द्वारा स्वात्मानुभूति होती है उस समय ये दोनों ज्ञान भी अतीन्द्रिय स्वात्मा को प्रत्यक्ष करते हैं (जानते हैं) इसलिये ये दोनों ज्ञान भी स्वानुभूति के काल में प्रत्यक्ष रूप हैं, परोक्ष नहीं हैं।।८३।।
(श्री पंचाध्यायी, पूर्वार्ध गाथा ७०६ का अर्थ और भावार्थ) * अन्वयार्थ :- स्पर्शादिक इन्द्रियों के विषयों को जानते समय और आकाश आदि द्रव्यों को जानते समय यह दोनों मति श्रुतज्ञान नियम से यहाँ परोक्ष होते हैं-प्रत्यक्ष नहीं।
भावार्थ :- परन्तु जिस समय यह दोनों ज्ञान - स्पर्शादिक विषयों को जानते हैं उस समय, तथा जिस समय आकाशादि अमूर्त पदार्थों को जानते हैं उस समय, यह दोनों ज्ञान नियम से परोक्ष ही है परन्तु स्वानुभूति के काल की माफक प्रत्यक्ष नहीं होते।
अन्वयार्थ :- यहाँ शंका होती है-शंकाकार कहता है कि यदि मति-श्रुतज्ञान स्वानुभूति के काल में प्रत्यक्ष है तो निश्चय से 'प्रथम के दो ज्ञान परोक्ष है' ऐसा सूत्र में निर्देश किस कारण किया है ? तथा परोक्ष लक्षण के योग से अर्थात् इनमें परोक्ष लक्षण घटित होने से भी यह दोनों ज्ञान परोक्ष प्रतीत होते हैं।
भावार्थ :- शंकाकार कहता है कि यदि मति-श्रुतज्ञान, स्वानुभूति के काल में प्रत्यक्ष होते हैं तो सूत्रकार ने 'आद्ये परोक्षं' इस सूत्र में उसको परोक्ष किसलिए कहा है ? अर्थात् यदि मति-श्रुतज्ञान स्वानुभूति के काल
*ज्ञेय ज्ञेय को जानता है, ज्ञान आत्मा को जानता है
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