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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
में प्रत्यक्ष होते हों तो सूत्रकार भी उसका अलग-उल्लेख करते परन्तु किया नहीं है, इसलिये मति-श्रुतज्ञान को स्वानुभूति के काल में भी परोक्ष ही कहना चाहिए, प्रत्यक्ष नहीं, कारण कि इसको प्रत्यक्ष कहना सूत्र विरुद्ध होने से आगम से विरोध आता है, तथा पूर्व में गाथा ७००-७०१ में कहे अनुसार परोक्ष लक्षण घटता है, इसलिये भी उसे परोक्ष ही कहना चाहिए, प्रत्यक्ष नहीं। उसका समाधान :
अन्वयार्थ :- ठीक है, क्योंकि विसंवाद रहित होने से वस्तु का विचार अतिशय रहित होता है इसलिये ये दोनों ज्ञान साधारण रूप से इस सूत्र के अनुसार परोक्ष हैं।
भावार्थ :- यदि कोई विसंवाद न रहता हो तो वस्तु का विचार निरतिशय होता है अर्थात् उसमें अतिशय का वर्णन सम्भव नहीं है। स्वात्मानुभूति के समय में मति-श्रुतज्ञान द्वारा आत्मा का साक्षात्कार होने से उनके प्रत्यक्ष होने में कोई विसंवाद नहीं रहता है इसलिये उनको प्रत्यक्ष कहना योग्य ही है; परन्तु सूत्रकार ने इन दोनों ज्ञानों का जो परोक्ष कहा है उसमें इतनी ही अपेक्षा समझना कि साधारण रूप से इन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है परन्तु जब कोई भव्य जीव को सम्यक्तव की प्राप्ति होती है तब कोई एक अनिर्वचनीय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है कि जिस शक्ति के सामर्थ्य से इन दोनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहा है।।८४।।
(श्री पंचाध्यायी, गाथा ७०७-७०८-७०९ अर्थ और भावार्थ सहित)
* अन्वयार्थ :- तथा निश्चय से सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व कर्म का उदय नहीं रहने से कोई ऐसी अनिर्वचनीय शक्ति प्रगट होती है जिसके द्वारा यह स्वात्म प्रत्यक्ष होता है।
भावार्थ :- सत्य पुरुषार्थ करते हुये जब जीव को सम्यग्दर्शन प्रगटता है तब मिथ्यात्व कर्म के उदय का स्वयं विनाश होता है, और ऐसी
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* इन्द्रियज्ञान में आकुलता है, अतीन्द्रिय ज्ञान में निराकुल आनन्द है*
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