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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
अर्थ तदाकार अथवा व्यवसायात्मक है, इसलिये अर्थविकल्प शब्द का अर्थ स्व-पर व्यवसायात्मक ज्ञान होता है। यह प्रमाण का लक्षण है। और इस प्रकार उपचरित सद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा से कहने में आता है।
अन्वयार्थ :- निश्चय से तत्व का स्वरूप केवल सत्प मानते हुए भी, निर्विकल्पता के कारण जो कि उक्त लक्षण ठीक नहीं है, तो भी अवलम्बन के बिना- निर्विषय ( विषय रहित) ज्ञान के स्वरूप का कथन अशक्य है, इसलिये ज्ञान स्वरूप से ही सिद्ध ( स्वरूप सिद्ध) होने से अनन्यशरण होने पर भी- निरालम्ब होने पर भी यहाँ पर वह ज्ञानहेतुवश-कारणवशात् उपचरित होने पर उससे भिन्न शरण की भाँति मालूम पड़ता है, अर्थात् स्व-पर-व्यवसायात्मक प्रतीत होता है। ___ भावार्थ :- यद्यपि ज्ञान, निर्विकल्पात्मक है - केवल ‘सत' शब्द से प्रतिपादित हो सकता है, इसलिये ज्ञान को विकल्पात्मक कहना योग्य नहीं है क्योंकि ज्ञान तो केवल सदात्मक और कोई के आश्रित नहीं होने से केवल स्वरूप सिद्ध होने से निर्विकल्प रूप है, तो भी इस निर्विकल्प का स्वरूप किसी न किसी अवलम्बन के बिना कहना अशक्य है, इसलिये-युक्तिपूर्वक ज्ञेय का अवलम्बन लेकर उसे ( ज्ञान को) 'स्व-परव्यवसायात्मक, अर्थविकल्पात्मक' इत्यादी शब्दों द्वारा कहा जाता है, और वह ज्ञेयाश्रित जैसा भासित ( मालूम ) होता है। ज्ञेयाश्रित कहना उपचार से है ( उपचरित है) - इसलिये यह उपचरित, वास्तविक रूप होने से सद्भूत और गुण-गुणी भेद होने से व्यवहार, इस कारण इस नय को उपचरित सद्भूत व्यवहार नय कहते हैं।।८२।।
(श्री पंचाध्यायी, पूर्वार्ध गाथा ५४१-५४२, ५४३, भावार्थ सहित) * अन्वयार्थ :- तथा विशेष में इतना है कि स्वानुभूति के काल में
*एक भावक भाव, एक ज्ञेय का भाव-उनसे अलग मैं ज्ञायकभाव हूँ
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