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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
बोध्य–बोधक सम्बन्ध है जैसे कि ज्ञान, ज्ञेयगत है और ज्ञेय भी ज्ञानगत है।
भावार्थ :- ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध को लेकर ज्ञान को ज्ञेयगत कहना तथा ज्ञेय को ज्ञानगत कहना यह भी नयाभास है। इसका कारण :
अन्वयार्थ :- जैसे आँख रूप को देखती है परन्तु वह आँख ही स्वयं रूप में चली नहीं जाती ( प्रविष्ट नहीं हो जाती) उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयों को जानता है तो भी वह ज्ञान ही स्वयं ज्ञेयों में चला नहीं जाता है (प्रविष्ट नहीं हो जाता है ) ।
भावार्थ :- जिस प्रकार आँख रूप को देखती है परन्तु इतने मात्र से आँख कहीं रूप में चली नहीं जाती, उसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयों को जानता है परन्तु इतने मात्र से यह ज्ञान कहीं ज्ञेयों में चला नहीं जाता है। इसलिये ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध को लेकर ज्ञान को ज्ञेयगत कहना यह नयाभास है। यहाँ ग्रंथकार ने ज्ञेय को ज्ञानगत कहने के सम्बन्ध में यद्यपि लिखा नहीं है तो भी ऐसा समझना कि जैसे ज्ञान ज्ञेयों में नहीं जाता (नहीं प्रविष्टता) वैसे ही ज्ञेय भी ज्ञान में नहीं आते (नहीं प्रविष्टते हैं ) ।।८१ ।।
(श्री पंचाध्यायी, पूर्वार्ध गाथा ५८५ - ५८६ का अर्थ - भावार्थ ) * अन्वयार्थ :- जैसे अब ' अर्थविकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है' ऐसा जो कहने में आता है वह उपचरित सद्भूत व्यवहार नय का उदाहरण है । इसमें यहाँ स्व–पर समुदाय को 'अर्थ कहते हैं तथा ज्ञान के स्व-पर व्यवसायरूप होने को 'विकल्प' कहते हैं।
भावार्थ :– ‘अर्थ विकल्पो ज्ञानं प्रमाणं' अर्थात् पदार्थ के विकल्पात्मक ज्ञान को प्रमाण कहना यह उपचरित सद्भूत व्यवहार नय का उदाहरण है । अर्थ शब्द का अर्थ स्व-पर पदार्थ और विकल्प शब्द का
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* परमात्मा कहते हैं - हमारे लक्ष से दुर्गति होगी *
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