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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
जीतना हुआ। ग्राह्य ग्राहक लक्षण वाले सम्बन्ध की निकटता के कारण जो अपने संवेदन (अनुभव) के साथ परस्पर एक जैसी हुई दिखाई देती हें ऐसी, भावेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये हुवे , इन्द्रियों के विषयभूत स्पर्शादि पदार्थों को अपनी चैतन्यशक्ति की स्वयमेव अनुभव में आने वाली असंगता के द्वारा सर्वथा अपने से अलग किया; सो यह इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का जीतना हुआ। इस प्रकार जो (मुनि) द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों को (तीनों को) जीतकर ज्ञेयज्ञायक-संकर नामक दोष आता था सो सब दूर होने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण और ज्ञानस्वभाव के द्वारा सर्व अन्य द्रव्यों से परमार्थ से भिन्न ऐसे अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे निश्चय से जितेन्द्रिय जिन हैं। (ज्ञान स्वभाव अन्य अचेतन द्रव्यों में नहीं है इसलिये उसके द्वारा आत्मा सबसे अधिक भिन्न ही है) कैसा है वह ज्ञानस्वभाव ? विश्व के ( समस्त पदार्थों के) ऊपर तिरता हुआ ( उन्हें जानता हुआ भी उन रूप न होता हुआ ), प्रत्यक्ष उद्योतपने से सदा अंतरंग में प्रकाशमान, अविनश्वर, स्वतःसिद्ध और परमार्थ रूप-ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है। इस प्रकार एक निश्चय स्तुति तो यह हुई।।७९।।
(श्री समयसार जी, गाथा ३१ टीका श्री अमृतचंद्राचार्य) * ज्ञेय तो द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का और ज्ञायकस्वरूप स्वयं आत्मा का-दोनों का अनुभव, विषयों की आसक्ति से एक सा होता था; जब भेदज्ञान से भिन्नत्व ज्ञात किया तब वह ज्ञेयज्ञायक-संकरदोष दूर हुआ ऐसा यहाँ जानना।।८०।।
(श्री समयसार जी, गाथा ३१ का भावार्थ,
पं. श्री जयचन्द जी छावड़ा)
* अन्वयार्थ :- यह भी नयाभास है कि ज्ञान और ज्ञेय का परस्पर
*यदि ज्ञान का स्वभाव पर को जानने का होवे तो उसमें आनन्द होना चाहिये
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