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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
नोकर्म ज्ञेय हैं इसलिये वे प्रतिभासित होते हैं"-ऐसा भेद ज्ञान रूप अनुभव आत्मा को या तो स्वयमेव हो अथवा उपदेश से हो तभी वह प्रतिबुद्ध होता है।।७७।। (श्री समयसार जी, गाथा–१९ का भावार्थ, पं. श्री जयचंद जी छावड़ा) * जो इन्द्रिये जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणदि आदं।
तं खलु जिदिदियं ते भणंति जे णिच्छिदा साहू।।३१।। कर इन्द्रिये ज्ञानस्वभाव रु, अधिक जाने आत्म को। निश्चयविर्षे स्थित साधु जन, भाष जितेन्द्रिय उन्हीं को।।३१।।
जो इन्द्रियों को जीतकर ज्ञानस्वभाव के द्वारा अन्य द्रव्य से अधिक आत्मा को जानते हैं उन्हे, जो निश्चय नय में स्थित साधु हैं वे, वास्तव में जितेन्द्रिय कहते हैं।।७८ ।।
(श्री समयसार जी, गाथा ३१, श्रीमद् कुंदकुंदाचार्य) * (जो द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों कोतीनों को अपने से अलग करके समस्त अन्य द्रव्यों से भिन्न अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे मुनि निश्चय से जितेन्द्रिय हैं।) अनादि अमर्यादरूप बंधपर्याय के वश जिसमें समस्त स्व-पर का विभाग अस्त हो गया है ( अर्थात् जो आत्मा के साथ ऐसी एकमेक हो रही है कि भेद दिखाई नहीं देता) ऐसी शरीर परिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रियों को तो निर्मल भेदाभ्यास की प्रवीणता से प्राप्त अंतरंग में प्रगट अतिसूक्ष्म चैतन्यस्वभाव के अवलम्बन के बल से सर्वथा अपने से अलग किया; सो वह द्रव्यन्द्रियों को जीतना हुआ। भिन्न-भिन्न अपने-अपने विषयों में व्यापार भाव से जो विषयों को खण्ड-खण्ड ग्रहण करती है (ज्ञान को खण्ड-खण्ड रूप बतलाती है) ऐसी भावेन्द्रियों को, प्रतीति में आती हुई अखण्ड एक चैतन्यशक्ति के द्वारा अपने से भिन्न जाना सो यह भावेन्द्रियों का
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* इन्द्रियज्ञान आत्म अनुभव कराने में असमर्थ है*
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