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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * जैसे रूपी दर्पण की स्वच्छता ही स्व-पर के आकार का प्रतिभास करने वाली है और उष्णता तथा ज्वाला अग्नि की है इसी प्रकार अरूपी आत्मा की तो अपने को और पर को जानने वाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुदगल के है इस प्रकार स्वतः अथवा परोपदेश से जिसका मूल भेद विज्ञान है ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी तब ही (आत्मा) प्रतिबुद्ध होगा।।७५।। (श्री समयसार जी, गाथा-१९ की टीका में से, श्री अमृतचंद्राचार्य) * अब, कोई तर्क करे कि आत्मा तो ज्ञान के साथ-तादात्म्य स्वरूप है, अलग नहीं है, इसलिए वह ज्ञान का नित्य सेवन करता है; तब फिर उसे ज्ञान की उपासना करने की शिक्षा क्यों दी जाती है ? उसका समाधान यह है:- ऐसा नहीं है। यद्यपि आत्मा ज्ञान के साथ तादात्म्य स्वरूप है, तथापि वह एक क्षण मात्र भी ज्ञान का सेवन नहीं करता; क्योंकि स्वयंबुद्धत्व ( स्वयं स्वतः जानना) अथवा बोधितबुद्धत्व (दूसरों के बताने से जानना)-इन कारण पूर्वक ज्ञान की उत्पत्ति है। (या तो काललब्धि आये तब स्वयं ही जान ले अथवा कोई उपदेश देने वाला मिले तब जाने-जैसे सोया हुआ पुरुष या तो स्वयं ही जाग जाये अथवा कोई जगाये तब जागे।) यहाँ पुनः प्रश्न होता है कि यदि ऐसा है तो जानने के कारण से पूर्व क्या आत्मा अज्ञानी ही है क्योंकि उसे सदा अप्रतिबुद्धत्व है ? उसका उत्तर :- ऐसा ही है, वह अज्ञानी ही है।।७६ ।। (श्री समयसार जी, कलश-२० के बाद की टीका , श्री अमृतचंद्राचार्य) * जैसे दर्पण में अग्नि की ज्वाला दिखाई देती है वहाँ यह ज्ञात होता है कि “ज्वाला तो अग्नि में ही है वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं हैं, और जो दर्पण में दिखाई दे रही हैं वह दर्पण की स्वच्छता ही है;" इसी प्रकार “कर्म-नोकर्म अपने आत्मा में प्रविष्ट नहीं है; आत्मा की ज्ञान-स्वच्छता ऐसी ही है कि जिसमें ज्ञेय का प्रतिबिम्ब दिखाई दे; इसी प्रकार कर्म - __* मैं पर को जानता हूँ ऐसी बुद्धि मिथ्या है Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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