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इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
आचार्य शुद्धनय का अनुभव करके कहते हैं कि-इन समस्त भेदों को गौण करने वाला जो शुद्धनय का विषयभूत चैतन्य-चमत्कार मात्र तेजःपुञ्ज आत्मा है, उसका अनुभव होने पर नयों की लक्ष्मी उदित नहीं होती, प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेपों का समूह कहाँ चला जाता है सो हम नहीं जानते। इससे अधिक क्या कहें ? द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होती।।७१।।
(श्री समयसार जी, कलश-९ का श्लोकार्थ, श्री अमृतचंद्राचार्य) * द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि पदगलद्रव्यों में अपनी कल्पना करना सो संकल्प है, और ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में भेद ज्ञात होना सो विकल्प है।।७२।।
(श्री समयसार जी, कलश-१० के श्लोकार्थ में से) * आचार्य कहते हैं कि हमें वह उत्कृष्ट तेज-प्रकाश प्राप्त हो कि जो तेज सदाकाल चैतन्य के परिणमन से परिपूर्ण है, जैसे नमक की डली एक क्षार रस की-लीला का आलम्बन करती है, उसी प्रकार जो तेज एक ज्ञानरसस्वरूप का आलम्बन करती है; उसी प्रकार जो तेज एक ज्ञानरसस्वरूप का आलम्बन करता हैं; जो तेज अखण्डित है-जो ज्ञेयों के आकाररूप खण्डित नहीं होता, जो अनाकुल है जिसमें कर्मों के निमित्त से होने वाले रागादि से उत्पन्न आकुलता नहीं है, जो अविनाशी रूप से अंतरंग में और बाहर में प्रगट दैदीप्यमान है-जानने में आता है, जो स्वभाव से हुआ है-जिसे किसी ने नहीं रचा और सदा जिसका विलास उदय रूप है-जो एकरूप प्रतिभासमान है।।७३।।
(श्री समयसार जी, कलश-१४ श्लोकार्थ) * आचार्य देव ने प्रार्थना की है कि यह ज्ञानानंदमय एकाकार स्वरूप-ज्योति हमें सदा प्राप्त रहो।।७४।।
(श्री समयसार जी, कलश–१४ का भावार्थ,
___ पं. श्री जयचन्द जी छावड़ा)
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* मैं ज्ञायक और छह द्रव्य ज्ञेय वह भ्रांति है
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