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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है * वह इन्द्रियजन्य ज्ञान मोह से युक्त होने के कारण प्रमत्त , अपनी उत्पत्ति में बहुत कारणों की अपेक्षा रखने से निकृष्ट , क्रमपूर्वक पदार्थों को विषय करने के कारण (जानने के कारण) व्युच्छिन्न तथा ईहा आदि पूर्वक ही होता होने से दुःखरूप कहलाता है।।४६ ।।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २८१) * वह इन्द्रियज्ञान पराधीन (पर निमित्त से उत्पन्न) होने के कारण परोक्ष है, इन्द्रियों से पैदा होने के कारण आक्ष्य ( इन्द्रियजन्य ) है, और उसमें संशयादि दोषों के आने की संभावना होने से वह सदोष है।।४७।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २८२) * बन्ध का हेतु होने से विरुद्ध , बन्ध का कार्य होने से कर्मजन्य, आत्मा का धर्म न होने से अश्रेय और कलुषित होने से स्वयं अशुचि है।।४८।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २८३ ) * उस इन्द्रियज्ञान के निमित्त से बन्ध होता है इसलिए वह विरुद्ध है। पूर्वबद्ध कर्मों के सम्बन्ध को रखकर ही उसकी उत्पत्ति होती है इसलिए वह कर्मजन्य है। वास्तव में वह आत्मा का स्वभाव नहीं है इसलिए अश्रेय रूप है। और स्वयं ही कलुषित होने से वह अशुचि है।।४९।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २८३ का भावार्थ) * जैसे मृगी का रोग कभी बढ़ जाता है, कभी घट जाता है अथवा कभी बिल्कुल नहीं रहता है। वैसे ही यह इन्द्रियजन्य ज्ञान कभी कम, कभी अधिक और कभी-कभी अत्यन्त कम हो जाता है, इसलिए यह मूर्छित कहलाता है।।५० ।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २८४ का भावार्थ) * इन्द्रियजन्य ज्ञान कैसा तुच्छ, अल्प, पराधीन और अत्राण (अशरण) २१ * इन्द्रियज्ञान वह आत्मा को जानने का साधन नहीं है* Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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