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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है अज्ञात रहने से उनको जानने की आतुरतादि (इच्छा) देखी जाती है।।४२।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध , गाथा २७९) * परालम्बी और प्रत्यर्थपरिणामी होने से इन्द्रियजन्य ज्ञान में दुःखपना असिद्ध नहीं है। क्योंकि ज्ञात से शेष रहे हुए ज्ञेय के अंशों को जानने की आतुरता - अधीराई (जिज्ञासा) वगैरहा रहती है, इसलिए उस ज्ञान में व्याकुलता का सद्भाव सिद्ध होता है। और व्याकुलता के पाये जाने से उस ज्ञान में दुःखपना सिद्ध होता है। और दुःखपने के सद्भाव से उसमें अनुपादेयता की भी सिद्धि होती है। वास्तव में तो मिथ्यादृष्टि को पर को जानने की रुचि होती है लेकिन स्व को जानने की रुचि होती ही नहीं है इसलिए वह दुःखी होता है।।४३।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २७९ का भावार्थ गुजराती में से) * शेष अर्थों के जानने की इच्छा रखने वाला मन अज्ञान से व्याकुल रहता है। अर्थात् उन ज्ञातांशों से अतिरिक्त शेष अंशों के ज्ञान नहीं होने से व्याकुल रहता है। यह तो दूर रहो परन्तु जो पदार्थ हैं उनके विषय में उपयोगी होने वाला ज्ञान भी दुःखजनक ही होता है।।४४।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध , गाथा २८० गुजराती में से) * ज्ञात अंश से अतिरिक्त शेषार्थ (बाकी के अर्थ) को जानने की आतुरता-अधीराई, (जिज्ञासा) रहने से अज्ञानी का मन मात्र व्याकुल रहता है। इसका तो कहना ही क्या है!! अर्थात् वह तो निश्चय से व्याकुल है ही-दुःखरूप है ही। परन्तु जो पदार्थ हैं उनको जानने में उपयोगी होनेवाला इन्द्रियजन्य ज्ञान को भी दुःख रूप कहा जाता है।।४५।। (श्री पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, गाथा २८० का भावार्थ गुजराती में से) २० * केवल निज शुद्धात्मा को जानते हैं इसलिए केवली है? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008245
Book TitleIndriya Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSandhyaben, Nilamben
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size3 MB
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