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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इन्द्रियज्ञान... ज्ञान नहीं है
बँधता है। इस प्रकार यह द्रव्यबन्ध का निमित्त भावबन्ध है ।। ३४ ।। ( श्री प्रवचनसार जी, गाथा १७६ टीका )
* अन्वयार्थ :- (अहं) मैं ( परेषां ) दूसरों का ( न भवामि ) नहीं हूँ ( परे मे न ) पर मेरे नहीं है, ( इह ) इस लोक में (मम) मेरा ( किंचित्) कुछ भी ( न अस्ति) नहीं है, ( इति निश्चित: ) ऐसा निश्चयवान् और (जितेन्द्रिय: ) जितेन्द्रिय होता हुआ ( यथाजातरूपधरः ) यथाजातरूपधर ( सहजरूपधारी ) ( जात: ) होता है ।। ३५ ।। ( श्री प्रवचनसार जी, गाथा २०४ का गाथार्थ ) * टीका :- और फिर तत्पश्चात् श्रामण्यार्थी यथाजातरूपधर होता है। वह इस प्रकार किः— — प्रथम तो मैं किंचित्मात्र भी पर का नहीं हूँ, पर भी किंचित्मात्र मेरे नहीं हैं, क्योंकि समस्त द्रव्य तत्वतः पर के साथ समस्त सम्बन्धरहित हैं; इसलिये इस षड्द्रव्यात्मक लोक में आत्मा से अन्य कुछ भी मेरा नहीं है, ' - इस प्रकार निश्चित मतिवाला ( वर्तता हुआ) और परद्रव्यों के साथ स्व-स्वामि सम्बन्ध जिनका आधार है ऐसी इन्द्रियों और नो-इन्द्रियों के जय से जितेन्द्रिय होता हुआ वह (श्रामण्यार्थी) आत्मद्रव्य का यथानिष्पन्न शुद्ध रूप धारण करने से यथाजातरूपधर होता है ।। ३६ ।।
(श्री प्रवचनसार जी, गाथा २०४ टीका ) * भाव यह है कि मैं केवल ज्ञान और केवल दर्शन स्वभावरूप से ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव हूँ। ऐसा होता हुआ मेरा परद्रव्यों के साथ स्व-स्वामीपने आदि का कोई सम्बन्ध नहीं है। मात्र ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है, सो भी व्यवहारनय से है । निश्चय नय से यह ज्ञेय- -ज्ञायक सम्बन्ध भी नहीं है ।। ३७ ।।
( श्री प्रवचनसार जी, श्री जयसेनाचार्य गाथा २०० की टीका में से )
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* मैं स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श करता हूँ
यह मान्यता मिथ्या है*
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